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  • Unhygienic Food and Pathetic Service at Comesum Restaurants

    Unhygienic Food and Pathetic Service at Comesum Restaurants

    Unhygienic Food Quality Pathetic Service at Comesum Restaurants

     

    परसों ट्रेन से पुरानी दिल्ली उतरने के बाद भूख लगी थी तो Comesum Food Junctionचला गया. कुछ सालों पहले यहाँ खाना खाया था तो इसका स्टैण्डर्ड काफी अच्छा था. लेकिन कल बहुत ही घटिया अनुभव रहा. 350 रूपये चार्ज करने और आधा घंटा इंतज़ार करवाने के बाद जो खाना उन्होंने दिया उसे देखकर मूड खराब हो गया. सारी सब्जियां सुबह से बनाकर बड़े-बड़े बर्तनों में रखी थीं और उसी से निकालकर सबको दे रहे थे. चावल सूखकर कड़े हो गए थे और उनका कलर भी चेंज हो गया था. पनीर को टमाटर की घटिया लाल चटनी में डालकर उसे शाही पनीर बता रहे थे. साथ में परांठा जिस थाली में दिया था उसे शायद बरसों से ढंग से धोया नहीं नहीं गया था. मैंने मैनेजर को बुलाकर कम्प्लेन की कि छोटे छोटे बच्चे भी आपके यहाँ ये खाना खा रहे हैं. इस गर्मी में ये खाना खाकर किसी को कुछ हो जाए तो आप जिम्मेदार होंगे इसके लिए? तो वे मुझसे माफी मांगकर मुझे आइसक्रीम ऑफर करने लगे. मैंने कहा आइसक्रीम आप खुद खा लीजिये और किचेन में जाकर पहले बर्तन साफ़ करवाइए.

    Unhygienic Food Quality Pathetic Service at Comesum Restaurants

  • क्या कीड़े-मकोड़ों को दर्द होता है?

    क्या कीड़े-मकोड़ों को दर्द होता है?

    insect-sculptures-edouard-martinet-10 अगर आप किसी कीड़े-मकोड़े (Insect) को गलती से घायल कर देते हैं और वह ऐसी अवस्था में है कि उसका मरना लगभग तय है तो आपको क्या करना चाहिए? क्या उसे मार देना चाहिए जिससे कि उसे घायल अवस्था में देर तक कष्ट न झेलना पड़े. या फिर उसे छोड़ देना चाहिए क्योंकि जान-बूझकर किसी जीव को मारना सही नहीं है चाहे उसके जिन्दा रहने की संभावना कितनी भी कम क्यों  न हो? यह प्रश्न अक्सर हमारे सामने आता है और इसका उत्तर देना इतना आसान नहीं है. ऐसे प्रश्न मनोविज्ञान, नैतिकता, धर्म और विज्ञान जैसे कई विषयों से जुड़े होते हैं और इनका कोई एक सही उतर देना मुश्किल होता है. पर जब यही प्रश्न किसी ने जिज्ञासावश Quora पर पूछा तो यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के पीएचडी स्कॉलर और कीट वैज्ञानिक Matan Shelomi ने बड़ा ही दिलचस्प उत्तर दिया. प्रश्न था कि

    If you injure an insect, should you kill it or let it live?

    insectऔर Matan Shelomi का उत्तर यह था:

    ऐसा लगता है कि दार्शनिकों और आस्तिकों ने पर्याप्त तर्क दे दिया है. जहाँ तक कीट विशेषज्ञों (entomologists) की राय का सवाल है तो मैं आपको बताना चाहूंगा कि इन्सेक्ट्स में मनुष्यों और जानवरों जैसे vertebrates की तरह दर्द को महसूस करने वाले अंग (receptors) होते ही नहीं हैं. इसलिए उन्हें दर्द महसूस ही नहीं होता. हाँ उन्हें यह अनुभव हो सकता है कि वो घायल हैं और उन्हें थोड़ी irritation भी महसूस हो सकती है. लेकिन फिर भी यह कहना गलत होगा कि कीड़े-मकोड़े घायल होने के कारण कष्ट/दुःख महसूस करेंगे क्योंकि उनमें इमोशंस होते ही नहीं. अगर आप किसी कीड़े को बुरी तरह घायल कर देते हैं तो वह जल्दी ही मर जाएगा क्योंकि वह अपने शिकारियों से भागने की स्थिति में नहीं होगा या फिर इन्फेक्शन या भूख से उसकी जान चली जायेगी. कुल मिलाकर जख्म या विकलांगता कीड़े के लिए कोई टॉर्चर या भयंकर दर्द भरा अनुभव नहीं बल्कि सिर्फ एक ‘असुविधा’ की तरह होगा. इसलिए उसे उसके ‘कष्ट’ से मुक्ति दिलाने की कोई जरुरत तो नहीं ही है साथ ही उस कीड़े का अब इस संसार में जीने का कोई अर्थ भी नहीं है. अगर वह प्रजनन नहीं कर सकता तो उसके जीने का कोई और मतलब ही नहीं है.

    दूसरे शब्दों में, मैंने आपके प्रश्न का उत्तर दिया ही नहीं क्योंकि अगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो आप कीड़े को मार दें या जिन्दा रहने दें इससे न तो कीड़े को कोई फर्क पड़ता है न ही दुनिया को. लेकिन आप अगर व्यक्तिगत रूप से मुझसे पूछें तो मैं कीड़े को और ज्यादा नुक्सान नहीं पहुँचाना चाहूंगा. क्योंकि – 1. हो सकता है चोट ज्यादा न हो और वह ठीक हो जाए. 2. कई धर्मों में जीवों को मारना पाप माना जाता है. तो जान बूझकर किसी को मारने की क्या जरुरत है? और 3. इससे बेकार में जूते गंदे होंगे.

    आप मूल उत्तर को अंग्रेजी में नीचे पढ़ सकते हैं. (more…)

  • Defend Internet Freedom in India!

    Defend Internet Freedom in India!

    net-neutrality- defend open internetक्या आपको ओपन इंटरनेट (or Net Neutrality) को लेकर चल रही बहस के बारे में पता है? टेलिकॉम कंपनियों का नेक्सस इस कोशिश में है कि वो इंटरनेट पर कब्ज़ा करें और उससे पैसे कमायें. एयरटेल पहले ही एक बार ऐसी कोशिश कर चुका है. अगर ये कम्पनियाँ अपने मकसद में कामयाब रहती हैं तो इसका मतलब यह होगा कि आपको अपने फोन और ब्रौडबैंड में इंटरनेट का चार्ज देने के अलावा कुछ ख़ास साइट्स (फेसबुक, स्काइप, व्हाट्सएप, यूट्यूब वगैरह) को यूज करने के लिए अलग से पैक डलवाना पड़ सकता है. इसके अलावा कम्पनियाँ इन साइट्स के लिए इंटरनेट की स्पीड को कम कर सकती हैं या इन्हें ब्लॉक भी कर सकती हैं. क्या इंटरनेट ओपन और न्यूट्रल नहीं होना चाहिए? क्या जिस इंटरनेट के लिए हम पैसे दे रहे हैं उससे कोई भी साइट यूज करने की आजादी यूजर को नहीं होनी चाहिए? इसपर नियम बनाने के लिए TRAI जनता की राय मांग रहा है. अभी तक उन्हें दो लाख ईमेल मिल चुके हैं. आप भी एक मेल भेजें या फिर बाद में टेलिकॉम कंपनियों के शोषण के लिए तैयार रहें. आपको करना सिर्फ ये है कि नीचे दिए गए कंटेंट को कॉपी पेस्ट करके [email protected] पर ईमेल कर दें. सब्जेक्ट लाइन में Net Neutrality Feedback लिख सकते हैं. Net Neutrality पर ज्यादा जानकारी के लिए इस साईट पर जाएँ:- http://www.netneutrality.in/

    English Notice:- The internet’s success in fostering innovation, access to knowledge and freedom of speech is in large part due to the principle of net neutrality — the idea that internet service providers give their customers equal access to all lawful websites and services on the internet, without giving priority to any website over another.

    Due to intense lobbying by telecom operators like Airtel and Vodafone, the Telecom Regulatory Authority of India (TRAI) is planning to allow them to block apps and websites to extort more money from consumers and businesses — an extreme violation of net neutrality.

    TRAI has released a consultation paper with 20 questions spread across 118 complicated pages and wants you to send them an e-mail by 24th of April, 2015.

    Join us in fighting for net neutrality. Let’s remind TRAI that their job is to protect the rights of consumers, not the profit margins of telcos. Let’s demand access to the free, open internet.

    COPY & PASTE the Content Below and mail to [email protected] (more…)

  • मेरी कैरियर से जुड़े अहम फैसले – बेवकूफियों की सीरीज

    मेरी कैरियर से जुड़े अहम फैसले – बेवकूफियों की सीरीज

    Career Decisions right or wrong1. बिहार में सरकारी नौकरी की जितनी वैल्यू है उतनी किसी और प्रोफेशन की नहीं. 2007 में मुझे बैंक की नौकरी हुई थी. और ठीक उसी समय जेएनयू का एंट्रेस टेस्ट भी हो गया था. मैंने नौकरी की जगह जेएनयू में पढ़ने का ऑप्शन चुना. मेरे जानने वालों के अनुसार यह मेरी बहुत बड़ी बेवकूफी थी.
    2. जेएनयू से ग्रेजुएशन के बाद मेरे बहुत सारे करीबी लोगों का कहना था कि मुझे सिविल सर्विसेज की तैयारी करनी चाहिए पर मैंने आगे की पढ़ाई के लिए कोरिया जाने का निर्णय लिया. यह लोगों के अनुसार मेरी बेवकूफी थी. ऐसा नहीं कि मैं तैयारी करता तो हो ही जाता पर लोगों का कहना था कि मुझे कम से कम अटेम्प्ट करना चाहिए था.
    3. कोरिया में पढ़ाई पूरी होने के बाद मेरे सुपरवाइज़र और एक और प्रोफ़ेसर ने कहा कि आगे यहीं रिसर्च करो, स्कॉलरशिप के लिए रिकमेंडेशन हम लिख देंगे. पर मैंने यह कहकर माफी मांग ली कि सर अभी भारत वापस जाकर कुछ करना चाहता हूँ. बाद में अगर कोरिया आना ही पड़ा तो जरूर आपको बताउंगा. लोगों के अनुसार लौटकर यहाँ आना मेरा बेवकूफी वाला निर्णय था.
    4. कोरिया में कई अच्छी कंपनियों में ऊँचे पदों पर बैठे कुछ लोगों से संपर्क हुआ था और उन्होंने मुझे बोला कि यहाँ जॉब करनी हो तो बताना. पर मैं डिग्री पूरी करके सीधा वापस आ गया. अधिकतर लोगों का कहना था कि यहाँ क्या करने आये, वहीं जॉब करना चाहिए था. ज्यादा नहीं तो दो-चार साल काम करके कुछ पैसे ही जमा कर लेते फिर आते.
    5. भारत लौटने के बाद भी पिछले एक साल में कम से कम 4-5 इतने अच्छे जॉब ऑफर्स आये जिन्हें मना करना बहुत मुश्किल था. लेकिन मैंने अपनी पसंद का काम करने के लिए थोड़ा और स्ट्रगल करने का डिसीजन लिया. कई लोग अब भी कहते हैं कि मैं बेवकूफी कर रहा हूँ.

    कुल मिलाकर लोगों के अनुसार मैंने पिछले कुछ सालों में बेवकूफियों की पूरी सीरीज बनायी है. 🙂 अब ये बेवकूफियां थीं या समझदारी यह तो भविष्य ही बताएगा लेकिन दोनों ही स्थितियों में मैं खुद से संतुष्ट रहूँगा कि मैंने भेड़चाल और लोगों की ओपिनियन के हिसाब से ज़िंदगी के अहम फैसले नहीं लिए. अगर मैं पूरी तरह असफल भी रहा तो भी मेरे पास लोगों को अपने अनुभव से बताने को काफी कुछ रहेगा. वैसे भी मेरे जैसे लोगों के लिए जिन्होंने शुरूआत ज़ीरो से की है, खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए पूरा आसमान. 🙂

  • कितना खतरनाक है प्रदूषित दिल्ली में रहना

    कितना खतरनाक है प्रदूषित दिल्ली में रहना

    delhi-pollutionकुछ महीनों पहले एक रिपोर्ट पढ़ी थी कि दिल्ली की हवा इतनी प्रदूषित है कि सिर्फ सांस लेने से ही आप रोज आठ सिगरेट्स के बराबर Toxins अपने फेफड़ों में लेते हैं. अगर आप दिल्ली में एक दिन रहते हैं तो इन Toxins से आपकी ज़िन्दगी के दो घंटे कम हो जाते हैं. हलके फुल्के अंदाज़ में अखबारों ने इसे इस तरह भी छापा कि अमेरिकी राष्ट्रपति दिल्ली में 3 दिन रहे इसलिए उनकी ज़िन्दगी से 6 घंटे कम हो गए. और आज टाइम्स ऑफ इंडिया के फ्रंट पेज पर यह रिपोर्ट पढ़ी कि दिल्ली के लगभग 50% स्कूली बच्चों के लंग्स जहरीली हवा से डैमेज्ड हैं.

    हवा में प्रदूषण को हवा में PM10 और PM2.5 की मात्रा से मापा जाता है. PM10 और PM2.5 क्रमशः 10 और 2.5 माइक्रोन से छोटे पार्टिकल्स होते हैं जो सांस लेने पर आपने फेफड़ों के अन्दर और यहाँ तक कि आपकी ब्लडस्ट्रीम तक में प्रवेश कर सकते हैं. ये पार्टिकल्स सांस और फेफड़ों की अलग अलग बीमारियों के साथ-साथ हृदयरोग जैसी बिमारी के लिए भी जिम्मेदार होते हैं. अमेरिकन स्टैण्डर्ड के अनुसार PM10 की 201 की मात्रा को ‘Very Unhealthy’ और 301 से ऊपर को ‘Hazardous’ माना जाता है. लेकिन आप यह जानकार शॉकड हो जायेंगे कि WHO की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली की हवा में PM10 की मात्रा एक समय में 1000 को भी छू चुकी है. साल भर का औसत भी देखें तो दिल्ली में PM10 का लेवल 286 है जो दिल्ली को दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बनाता है. और ऐसा नहीं है कि दिल्ली की सिर्फ हवा जहरीली है. यहाँ का पानी भी खतरे की हद तक प्रदूषित है. अक्सर सीवर का पानी घरों तक जाने वाली वाटर सप्लाई में मिल जाता है.

    इन सब बातों से ज्यादा जो बात मुझे चिंतित करती है वो यह कि हम लोग इन सब बातों को इग्नोर करते हुए कितने आराम से जिए जा रहे हैं. यह समस्या कभी मेनस्ट्रीम डिबेट का हिस्सा नहीं बनती. इसके समाधान के लिए न तो जनता को कोई जल्दी है न ही सरकार को कोई चिंता है. चीन की राजधानी में एक समय में PM10 पार्टिकल्स की मात्रा 500 को पार कर गयी थी. तब यह खबर चीन के हर अख़बार और टीवी चैनल में छाई थी. यह एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बन गया था और चीनी जनता के दवाब में वहां की सरकार ने इसे नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाए. लेकिन हमारे यहाँ PM10 पार्टिकल्स की मात्रा 1000 को पार करने के बाद भी जनता कितनी चैन से है!! हम कब जागेंगे? ध्यान रखिये कि इस प्रदूषण को बढाने में आपका छोटा सा योगदान आपके बच्चे की उम्र का कर रहा है. उसे अस्थमा और ह्रदय रोग जैसी बीमारियाँ दे रहा है. जागिये, गंदगी फैलाना बंद कीजिये; अपने स्तर पर जितना संभव को सफाई कीजिये, पेड़ लगाइए और सरकार पर एक्शन के लिए दवाब बनाइये.

  • मेरा पहला DSLR कैमरा और कुछ तस्वीरें

    मेरा पहला DSLR कैमरा और कुछ तस्वीरें

    nikon d5300 Cameraपिछले 29 तारीख को एक अपना पहला DSLR कैमरा खरीदा – Nikon D5300. काफी रिसर्च करने के बाद मेरे बजट के अन्दर सबसे अच्छा कैमरा यही लगा. इससे पहले मेरे पास कैनन का एक छोटा डिजिटल कैमरा था – S95. हालांकि अपनी कैटेगरी में वह काफी बेहतरीन कैमरा था पर छोटे पॉइंट एंड शूट कैमरों की अपनी लिमिटेशंस होती हैं. उनमें फिक्स्ड लेंस होता है, सेटिंग्स में बहुत ज्यादा बदलाव आप नहीं कर सकते, फोकस की समस्याएँ होती हैं. इसलिए इस बार DSLR कैमरा खरीद कर फ़ोटोग्राफी सीखने का निर्णय लिया.

    nikon35mm dx 1.8gसबसे ज्यादा समस्या लेंस को लेकर हुई. मुझे पता नहीं था कि इतने तरह के लेंस होते हैं. :) सही लेंस के चुनाव के लिए काफी ज्यादा रिसर्च करना पड़ा और कई मित्रों की सलाह लेनी पड़ी. अंत में 35mm f1.8G लेंस लेने का निर्णय किया. इस लेंस की फोकल लेंथ 35mmपर फिक्स्ड होती है. इसका मतलब यह हुआ कि इससे आप ज़ूम इन या ज़ूम आउट नहीं कर सकते. आपको खुद ही चलकर सब्जेक्ट के करीब या दूर जाना पड़ेगा. यह शुरू में बहुत बड़ी लिमिटेशन की तरह लगा पर नेट पर रिसर्च के दौरान पता चला कि अधिकाँश प्रोफेशनल फोटोग्राफर शुरू में फिक्स्ड प्राइम लेंस से ही फोटोग्राफी करने की सलाह देते हैं. क्योंकि इससे आपको शुरू से ही आसानी से चीज़ों को ज़ूम करके फोटो लेने की आदत नहीं पड़ती. आप सही तरीके से फोटो को फ्रेम और कम्पोज करना सीखते हैं. एक बार इन बारीकियों की समझ हो जाने के बाद जब आप ज़ूम वाले लेंस का इस्तेमाल करते हैं तो आपकी फोटोग्राफी में और निखार आता है. इसलिए मैंने पहले लेंस के रूम में 35mm प्राइम लेंस लेने का निर्णय लिया. इस लेंस की एक और अच्छी बात यह है कि इसका एपरचर 1.8 है जो कि काफी वाइड है. इसका मतलब यह हुआ कि लेंस कम समय में ज्यादा लाईट को कैमरे में जाने देता है जिससे लो लाईट सिचुएशन में या फिर चलती-फिरती चीजों की फोटो भी ठीक आती है.

    नीचे कुछ तस्वीरें हैं जो कैमरा खरीदने बाद अपनी यूनिवर्सिटी के आस पास ली थी.

    Korean Warrior Gang Gam Chan
    हमारी यूनिवर्सिटी के पास कोरिया के प्रसिद्ध सेनापति ‘गांग गाम छान(강감찬)’ की प्रतिमा
    Old watches and beads seller in  a Seoul Street
    सियोल की एक सड़क पर पुरानी घड़ियाँ और आर्टिफिशल ज्वेलरी बेचते एक विक्रेता
    Tteokppokki Korea
    ट्रेडिशनल कोरियन स्ट्रीट फ़ूड स्टाल
    flower shop Seoul Korea
    फूलों की दुकान
  • आज करे सो अब

    आज करे सो अब

    अक्सर हम किसी बड़े काम या बेहतरीन आइडिया को सिर्फ इसलिए यह सोचकर टालते रहते हैं कि बाद में और बेहतर तरीके से करेंगे. उदाहरण कई हैं – आप कविताएँ लिखना चाहते हैं, कई छोटे बड़े विचार भी हैं दिमाग में. पर सोच रहे हैं कि बाद में अच्छे से अरेंज करके लिखेंगे. जब समय होगा तब. जब नौकरी लग जायेगी तब. जब रिटायर हो जायेंगे तब. आप कोई किताब लिखना चाहते हैं. कोई सोशल वर्क शुरू करना चाहते हैं. बिजनेस का कोई बेहतरीन आइडिया दिमाग में है. पर लग रहा है कि अभी सही समय नहीं है यह करने के लिए. आप बाद में कभी करेंगे. तब, जब आप एकदम परफेक्ट होंगे. आपके पास बहुत सारा ज्ञान होगा. बहुत सारे पैसे होंगे, या बहुत सारा समय होगा, कोई टेंशन नहीं होगी. है न? लेकिन शायद वो ‘तब’ कभी आयेगा ही नहीं.

    Do it now satish_paulo

    यह बात हम सबको पता है कि हम परफेक्ट कभी नहीं हो सकते. और परफेक्ट होने के जरुरत भी नहीं है. आप दुनिया के सफल से सफलतम व्यक्ति को ले लें. यहाँ तक कि ईश्वर के अवतारों को ले लें. उन सबमें त्रुटियाँ रही हैं. पर क्या उन कमियों ने उनकी सफलता में कोई रुकावट डाली? उन्हें उन कामों को करने से रोका जिन्हें वे अपने जीवन में करना चाहते थे?

    हममें कमियाँ और समस्याएँ हमेशा रहेंगी. जो काम अभी हम कर रहे हैं उनमें भी हम पूर्ण नहीं हैं. बहुत सारी कमियां हैं. फिर भी कर रहे हैं. फिर कुछ कामों में हम ऐसे बहाने क्यों बनाने लगते हैं? अगर आप गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि आप उन्हीं कामों को बाद के लिए ज्यादा टालते हैं जो कि आप वाकई दिल से करना चाहते हैं. जिनको आप ‘काम’ नहीं समझते. ऐसी चीज समझते हैं जिसे करके आपको सिर्फ और सिर्फ खुशी मिलेगी. बोरियत या थकान का तो सवाल ही नहीं. फिर क्यों टालते हैं हम ऐसे कामों को?

    शायद यह मानवीय स्वभाव है कि जो काम उसे प्रिय होते हैं, जिन्हें वह दिल से करना चाहता हैं उनमें असफलता की आशंका से भी वह घबराता है. इसलिए उन कामों को वह तभी शुरू करना चाहता है जब उसके पास उन्हें पूरा करने के लिए सारी अनुकूल परिस्थितियाँ हों. और दुनिया में अधिकाँश लोग इस कारण उन कामों को कभी कर ही नहीं पाते जिन्हें वो वाकई करना चाहते थे. चाहे वो कविता लिखना हो, पेंटिंग करना हो, संगीत सीखना हो, कोई नयी खोज करनी हो, नया बिजनेस शुरू करना हो या किसी से अपने प्रेम को व्यक्त करना हो.

    किसी काम को नहीं करने से बेहतर है उसे शुरू करना और असफल हो जाना. असफलता कम से कम आपको कुछ सिखाकर जायेगी. कोशिश ही नहीं करना आपके ज्ञान और अनुभव में कोई बढ़ोतरी नहीं करेगा. अगर आप एक आर्टिकल लिखना चाहते हैं और यह सोच रहे हैं कि बाद में और बेहतर रिसर्च करके और अच्छे से लिखेंगे तो इसकी ज्यादा संभावना है कि वह आर्टिकल कभी लिखा ही नहीं जाएगा. एक अपूर्ण या त्रुटियों से भरा आर्टिकल भी ऐसे सौ आर्टिकल्स से बेहतर है जो आपके दिमाग में ही रह गए, कागज़ पर उतरे ही नहीं. ये भी याद रखें कि एक समय के बाद लोग आपकी एक सफलता को याद रखेंगे न कि आपकी सौ असफलताओं को.

    Do it now satish

     

  • कोरियाई हिन्दी छात्र और हिन्दी इनस्क्रिप्ट टाइपिंग

    कोरियाई हिन्दी छात्र और हिन्दी इनस्क्रिप्ट टाइपिंग

    मेरा एक स्टूडेंट हैं जिसने एक दो महीने पहले हिन्दी सीखनी शुरू की है. वह प्राइमरी स्कूल में छठी कक्षा का छात्र है; उम्र करीब 12-13 साल. दो महीने पहले उसकी मां का फोन आया था मेरे पास कि बच्चे की भारत और हिन्दी में बड़ी गहरी रूचि है और अब तक वह खुद से पढ़ाई करके हिन्दी अल्फाबेट सीख चुका है और हिन्दी पढ़ लिख लेता है. उसके माता-पिता चाहते थे कि वो सही तरीके से किसी इंस्ट्रक्टर के साथ हिन्दी की स्टडी करे.

    हाई मोटिवेशन वाले स्टूडेंट्स को पढ़ाने में मुझे मजा आता है और ऐसी स्थितियों में पैसे, समय वगैरह को ज्यादा महत्व नहीं देता. मैंने बच्चे को पढ़ाना स्वीकार कर लिया. अभी तकरीबन दो महीने हो गए इस स्टूडेंट को पढ़ाते हुए और उसकी प्रोग्रेस काफी अच्छी है. उसकी किताबों की आलमारी में भारत की संस्कृति और इतिहास वगैरह की किताबें देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. अपने इतिहास और संस्कृति में इतनी रुची तो आजकल खुद भारतीयों की भी नहीं है.

    हिन्दी फिल्मों में भी इस छात्र की गहरी रूचि है. वह हर हफ्ते मुझसे हिन्दी फ़िल्में मंगवाता है और उन्हें देखता है. उसने बताया कि भारत में उसकी रूचि हिन्दी फिल्मों से ही शुरू हुई. पहले वह अपने माता-पिता के साथ आस्ट्रेलिया में रहता था. उस समय स्कूल में उसका एक दोस्त भूटान से था और वह अक्सर उसके घर जाता था. वहां अक्सर टीवी पर हिन्दी गाने या फ़िल्में चल रही होती थीं. वहीं से हिन्दी और भारत में उसकी रूचि शुरू हुई.

    कुछ दिन पहले उसने मुझे महाभारत की मोटी सी किताब दिखाई जो उसने अमेजन अमेरिका से मंगाई थी क्योंकि कोरिया में महाभारत पर किताब नहीं मिल पायी. उसके बाद से अब वह अक्सर महाभारत के पात्रों और घटनाओं के बारे में मुझसे सवाल करता है. ज्यादातर का तो मैं जवाब दे पाता हूँ पर कभी-कभी मुझे भी पता नहीं होता.

    My Korean Hindi Student

    कल जब उसे पढ़ाने गया तो उसने कम्प्यूटर पर हिन्दी में एक छोटी सी कहानी लिख कर रखी थी मुझे दिखाने के लिए. हालांकि कहानी में ग्रामर की गलतियां काफी थी पर उसके स्तर के हिसाब से काफी अच्छी थी. पर जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया वो यह थी कि कहानी लिखने के लिए उसने हिन्दी इनस्क्रिप्ट कीबोर्ड का लेआउट याद किया और टाइपिंग करनी सीखी. मुझे खुद हिन्दी इनस्क्रिप्ट कीबोर्ड पर टाइपिंग नहीं आती; गूगल इनपुट टूल का इस्तेमाल करता हूँ. खुद पर शर्म आयी और निश्चय किया कि पक्का हिन्दी टाइपिंग सीखूंगा अब. दुनिया के अधिकाँश देशों के लोग अपनी भाषाओं में कीबोर्ड का इस्तेमाल करना जानते हैं. पता नहीं भारत में क्यों हम या तो रोमन में हिन्दी लिखते हैं या फिर ट्रांसलिटरेशन टूल इस्तेमाल करते हैं.

    Korean Student Hindi Writing

  • कोरिया में अंतिम संस्कार

    कोरिया में अंतिम संस्कार

    आज पहली बार कोरिया में किसी अंतिम संस्कार (장례식) में गया. तीन दिन पहले मेरे प्रोफ़ेसर की माताजी का देहांत हो गया था. दो दिन तक मैं किसी काम में बहुत बिजी था तो आज तीसरे दिन शाम में जा पाया. कोरिया में अंतिम संस्कार का कार्यक्रम साधारणतः तीन दिन का होता है. लेकिन मेरे प्रोफ़ेसर की माताजी का अंतिम संस्कार कार्यक्रम चार दिन का हो रहा है. कोरियाई अंतिम संस्कार में मृत व्यक्ति के पार्थिव शरीर को 3 या 4 दिनों तक अंतिम संस्कार-गृह (장례식장) में रखा जाता है जिससे कि जानने वाले लोग आकर मृतात्मा को श्रद्धांजलि दे सकें और शान्ति के लिए प्रार्थना कर सकें. लेकिन मृत शरीर को दर्शन के लिए खुला नहीं रखा जाता है.

    मृत्यु के बाद शरीर को अच्छी तरह सुगन्धित जल से नहलाया जाता है और फिर हाथ पैर के नाख़ून अच्छी तरह काट के, बालों को कंघी कर के, अच्छे कपडे पहनाकर ताबूत में रखा जाता है. फिर ताबूत के सामने एक पर्दा लगाया जाता है और परदे के आगे एक मेज पर मृत व्यक्ति की एक तस्वीर राखी जाती है. लोग आकर तस्वीर के आगे प्रार्थना करते हैं और सफ़ेद गुलदाउदी के फूल (Chrysanthemum flowers; 국화) अर्पित करते हैं. तीसरे या चौथे दिन शरीर को परिवार के पारंपरिक समाधि स्थल पर अन्य पूर्वजों के बगल में दफना दिया जाता है. लेकिन दफनाने की प्रक्रिया में सिर्फ परिवार और नजदीकी संबंधी ही शामिल होते हैं.

    कोरिया में अंतिम संस्कार में जाने के लिए ड्रेस कोड भी होता है – ब्लैक फॉर्मल सूट, यहाँ तक की मोज़े भी काले होनें चाहिए. जाने वाले मृतक के परिवार को एक सफ़ेद लिफ़ाफ़े में कुछ पैसे (조의금) भी देते हैं. कोरिया में अंतिम संस्कार में बहुत पैसे खर्च होते हैं इसलिए पहले से ही दुखी परिवार को धन देकर सहायता करने का आइडिया मुझे अच्छा लगा. यह रकम एक रजिस्टर में नोट की जाती है और बाद में रकम देने वाले के घर में शादी-व्याह या कोइ अन्य समारोह होने पर उसी अनुपात में रकम गिफ्ट की जाती है. मृतक के परिवार वाले भी काले कपड़े पहनते हैं. साधारण तौर पर मृतक का बड़ा बेटा सांग्जु (Sangju; 상주) की भूमिका अदा करता है; यानि सारे रीति रिवाजों को मुख्य रूप से वही निभाता है. मृतक के परिवार वाले अपनी वाहों पर एक सफ़ेद रिबन बांधते हैं जिससे परिवार वालों को बाकी लोगों से अलग पहचाना जा सके.
    जब मैं अंतिम संस्कार-गृह (장례식장) में पहुंचा तो मुख्य हॉल में एक इलेक्ट्रोनिक डिस्प्ले बोर्ड लगा था जिसपर उस दिन जन लोगों का अंतिम संस्कार हो रहा था उनकी लिस्ट आ रही थी. वहीं बगल में एक मेज पर सफ़ेद लिफाफे और कलम रखी थी. मैंने एक लिफ़ाफ़े में पैसे रखे और उस हौल की और गया जहाँ मेरे प्रोफ़ेसर साहब की माताजी का संस्कार हो रहा था.
    Korean Funeral 1

    जहां पार्थिव शरीर रखा होता है उस कक्ष के अन्दर और बाहर पारंपरिक कोरियन कैलीग्राफी में मृतक के लिए प्रार्थना और अच्छी बातें लिखी होती हैं. उसके अलावा संबंधी और जानने वाले लोग फूलों के बहुत बड़े बड़े गुलदस्ते और बैनर भी  रख जाते हैं. चूँकि मेरे प्रोफ़ेसर कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत हैं इसलिए उनके जानने वालों की संख्या भी उतनी ही ज्यादा है. इस कारण गुलदस्तों और बैनरों की लाइन लगी थी. कक्ष के बाहर एक डेस्क पर दो लोग बैठे थे और एक रजिस्टर रखा था. मैंने वहां जाकर पैसे का लिफाफा जमा किया और रजिस्टर में अपने दस्तखत कर दिए.

    उसके बाद मैं जूते उतार कर हॉल के अन्दर गया. दरवाजे पर ही एक लड़की ने मुझे सफ़ेद गुलदाउदी फूलों का एक गुच्छा हाथ में दे दिया. सामने मेज पर माताजी की तस्वीर रखी थी और उसके दायीं और मेरे प्रोफ़ेसर यानी मृतक के सबसे बड़े पुत्र खड़े थे. सबसे पहले मैंने मेज पर रखी माताजी तस्वीर के आगे फूल चढ़ाए, झुक कर प्रणाम किया और खड़े होकर दो मिनट तक प्रार्थना की. फिर दायीं और मुड़कर अपने गुरूजी को झुक कर प्रणाम किया. वहाँ बोलना कुछ नहीं होता है. बस एक सम्मान और सांत्वना भरी चुप्पी काफी होती है. गुरूजी ने मेरे दोनों हाथ अपने हाथ में लेकर कर एक तरह से आने के लिए आभार प्रकट किया. फिर कहा कि खाना खाकर जाना.

    Korean Funeral 2

    वहीं बगल में भोजन करने की जगह थी जहाँ आने वाले लोग प्रार्थना करने और सांत्वना देने के बाद जाकर भोजन कर रहे थे. यह भोजन भी लगातार 3-4 दिन तक चलता रहता है. मैंने जाकर अपने डिपार्टमेंट के कुछ और छात्रों के साथ हल्का सा खाना खाया फिर वहां लोगों को खाना खिलाने में मदद करने लगा. डिपार्टमेंट के बहुत सारे छात्र-छात्राएं वहां काम में लगे थे. चूँकि गुरूजी का माताजी की उम्र भी काफी थी और एक भरी-पूरी ज़िंदगी जीकर अच्छे से गुजरी थीं इसलिए वहां पर ऐसा कोई ग़मगीन माहौल नहीं था. लोग अच्छे से हँसते गपशप करते हुए खाना खा रहे थे.

    Korean Funeral 3

    मेरा सौभाग्य रहा है कि मेरे गुरुओं का मुझपर हमेशा स्नेह रहता है. वर्तमान प्रोफ़ेसर साहब का मुझपर कुछ विशेष प्रेम रहता है. उन्हें पता है कि बीफ-पोर्क वगैरह न खाने के कारण मुझे कोरिया में खाने की बड़ी समस्या है. इसलिए जब भी मिलते हैं तो ये जरूर पूछते हैं कि खाना वगैरह ठीक से खा पी रहे हो न? तबियत-वगैरह  ठीक है न? आज भी जब मैं वहां काम में लगा था तो वे अपनी जगह से निकल कर भोजन वाली जगह पर आये और मुझे बुला कर पूछा कि खाना ठीक से खाया या नहीं; तुम्हारे खाने लायक तो ज्यादा कुछ होगा भी नहीं. मैंने बोला, नहीं सर, भर पेट खा लिया., बहुत कुछ था खाने को. फिर भी वो वहां किचेन वाले को बोल के गए कि इसको अलग से फ्रूट सलाद वगैरह बनाकर दो, ये मीट नहीं खाता है. ये अलग बात है कि मैंने बाद में कुछ खाया नहीं पर उनके स्नेह से मन अभिभूत हो गया.

    अगर आप कोरिया में अंतिम संस्कार की प्रक्रिया के बारे में और विस्तार से जानना चाहते हैं तो इन लिंक्स पर जा सकते हैं:
    http://www.seoulsite.com/survival-faq/a-korean-funeral/

    http://askakorean.blogspot.kr/2008/02/dear-korean-i-just-found-out-that-my.html

    http://www.eslpost.com/info/faq_qanda.php?id=160

  • जंगल, आग और हम

    जंगल, आग और हम

    पिछले साल जब मैं उत्तराखंड गया था तो रात में टहलते हुए देखा कि दूर पहाड़ों पर करीब पांच सौ मीटर का क्षेत्र रोशनी से जगमग कर रहा है। पहले लगा कि कोई मंदिर वगैरह होगा। फिर लगा कि इतना बड़ा मंदिर होता तो मुझे पता होता और फिर इतने ऊँचे पहाड़ों में इतनी बिजली कौन बर्बाद करेगा। सोचा कि सुबह होटल वाले से पूछुंगा। अगले दिन जब ध्यान से देखा तो पता चला कि पहाड़ों में उतने क्षेत्र में आग लगी हुई थी जो फैलती ही जा रही थी। हरे भरे पहाड़ से काला धुंआ उठ रहा था। मैंने बिलकुल इमरजेंसी टाइप से होटल वाले को सूचना दी। उन्होंने आराम से अपने कुत्ते को नहलाते हुए कहा “हाँ पता है, उधर आग लगी है। अपने आप बुझ जाती है ये.. 10-15 दिन में।” “10-15 दिन में???” मैं शॉक्ड था। शायद ‘आग लगना’ शब्द के मायने हमारे और उनके लिए अलग थे। मैंने होटल वालों, टैक्सी वालों कई लोगों से बोला कि कोई जंगल या पर्यावरण विभाग वगैरह नहीं है क्या यहाँ जहाँ फ़ोन करके आग के बारे में बताया जा सके। जिससे भी बोलता था वो मुझे एलियन टाइप से देखता था। हरे भरे ख़ूबसूरत पहाड़ों को जलते देखना मेरे लिए बहुत कष्टकर था। मेरे लिए प्राकृतिक सम्पदा का नष्ट होना किसी भी बड़े मंदिर-मस्जिद-धरोहर के ढहने से ज्यादा बड़ी त्रासदी है। अभी जब उत्तराखंड और हिमाचल के जंगलों में भयंकर आग की खबर पढ़ रहा हूँ तो लग रहा है कि शायद हमारे जैसे लोग ऐसी ख़ूबसूरत जगहें डिज़र्व ही नहीं करते। एक दिन हम हिमाचल और उत्तराखंड को भी नोएडा और गुड़गांव बना देंगे।