रागबोध की कविताएँ
यह सही है की नागार्जुन की कवितायेँ मुख्य रूप से तत्कालिन सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को लेकर हैं। लेकिन उन्होंने ऐसी कविताएँ भी कम नहीं लिखी हैं जिनमें निजी जिन्दगी के हर्ष-विषाद सघन संवेदनात्मक और रचनात्मक ऐंद्रिकता के साथ अभिव्यक्त हुए है। नागार्जुन की प्रेम और प्रकृति से जुड़ी कविताएँ एक ऐसा मानवीय संसार रचती हैं जो अद्वितीय है। प्रेम कविताओं में अगर सघन संवेदनात्मकता है तो प्रकृति सम्बन्धी कविताओं में रचनात्मक ऐंद्रिकता। प्रकृति-प्रणय की अनुभूतियों से सम्बद्ध कविताओं के अतिरिक्त नागार्जुन ने कुछ कवितायेँ ऐसी भी लिखी हैं जिनमें तरौनी गाँव, इमली का पेड़ और गाँव के पोखर पर तैरती मिट्टी की सोंधी महक है. उन आलोचकों के लिए ये कविताएँ चुनौती की तरह हैं जो यह आरोप लगाते रहे हैं कि प्रगतिशील कविता मानवीय संवेदनाओं की आत्यंतिकता से अछूती है और कलात्मकता से उसका सीधा रिश्ता नहीं है।
प्राकृतिक सौन्दर्य की कविताएँ
घुम्मकड़ी नागार्जुन के जीवन की एक अविभाज्य विशेषता है। अपने यायावरी जीवन के कारण उन्होंने देश-देशांतर के अनुभव बटोरे और प्रकृति कों अनेक रंगों में देखा। प्राकृतिक सौंदर्य की उनकी सर्वाधिक प्रशंसित कविताओं में ‘बादल कों गिरते देखा है’ कविता है। बादलों पर लिखी इस कविता में उन्होंने मैदानी भागों से आकर हिमालय की गोद में बसी झीलों में क्रीडा कौतुक करते हंसों, निशाकाल में शैवालों की हरी दरी पर प्रणयरत चकवा-चकवी के दृश्यबंध तो प्रस्तुत किए ही साथ ही कहीं पगलाए कस्तूरी मृग कों कविता में ला खडा किया –
निज के ही उन्मादक परिमल
के पीछे धावित हो होकर
अपने ऊपर चिढ़ते देखा है
बादल कों घिरते देखा है।
प्रकृति के प्रति नागार्जुन में विशेष आकर्षण है। प्रकृति प्रेम उनकी ताजगी की प्यास बुझाता है। उनका प्रकृति प्रेम कृत्रिम नहीं है बल्कि सहज और नैसर्गिक है।
यह कपूर धूप
शिशिर की यह सुनहरी, यह प्रकृति का उल्लास
रोम रोम बुझा लेना ताजगी की प्यास।
बसंत कों कवि ने विशेष ललक से देखा। इसी तरह ‘शरद पूर्णिमा’, ‘अब के इस मौसम में’, ‘झुक आए कजरारे मेघ’ आदि कविताओं में नागार्जुन का सहज प्रकृति चित्रण देखा जा सकता है। चाँद का यह चित्र देखिये –
काली सप्तमी का चाँद
पावस की नमी का चांद
तिक्त स्मृतियों का विकृत विष वाष्प जैसे सूंघता है चाँद
जागता था, विवश था अब धुंधला है चाँद
नागार्जुन की कविताओं में सौंदर्यमूलक परिवेश एकदम सजीव और मनोरम बन पडा है। ग्रामीण सौंदर्य चित्रण में कवि ने नदी, तालाब, अमराई, खेत-खलिहान आदि के जो दृश्य-पट संजोये हैं वे अपनी मनोरम छवि से पाठक कों बार बार रसभीनी अनुभूतियों में ले जाते हैं। वर्षा ऋतु में उठती मिट्टी की सोंधी महक, कजरारे मेघों की घुमड़न, मोर-पपीहा की गूंजती स्वर लहरियों और रह-रह कर चमकती बिजली की आँख मिचौली में नागार्जुन ख़ुद कों प्रस्तुत करते से दिखाई पड़ते हैं।
प्रकृति का वर्णन करते हुए कभी-कभी वे भावाकुल हो उठते हैं। कभी वे जन-जीवन में हरियाली भरने वाले पावस कों बारम्बार प्रणाम भेजने लगते हैं –
लोचन अंजन, मानस रंजन,
पावस तुम्हे प्रणाम
ताप्ताप्त वसुधा, दुःख भंजन
पावस तुम्हे प्रणाम
ऋतुओं के प्रतिपालक रितुवर
पावस तुम्हे प्रणाम
अतुल अमित अंकुरित बीजधर
पावस तुम्हे प्रणाम
कवि नागार्जुन प्रकृति कों सहज रूप में देखते हैं। उन्होंने प्रकृति का सजीव और स्वाभाविक चित्रण किया है। नागार्जुन की ‘प्रकृति जनसाधारण के सुख-दुःख में अपनी भागीदारी निभाती है और यह तभी हो सकता है कवि का भी उसके साथ सहज और आत्मीय सम्बन्ध कायम हो; और यह आत्मीयता बाबा नागार्जुन में देखी जा सकती है।
प्रणय भाव की कविताएँ
नागार्जुन ने हमेशा घुम्मकड़ी जीवन जीया पर उनकी अपनी पत्नी के प्रति गहरी रागात्मकता थी। कभी कभी प्रेयसी का बिछोह कवि नागार्जुन कों व्याकुल कर देता है। ‘सिन्दूर तिलकित भाल’, वह तुम थी’, ‘तन गई रीढ़’ और ‘वह दन्तुरित मुस्कान’ जैसी कविताओं में उनका यह प्रेम, यह विछोह उभर कर सामने आया है।
झुकी पीठ को मिला
किसी हथेली का स्पर्श
तन गई रीढ़
महसूस हुई कन्धों को
पीछे से,
किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल साँसें
तन गई रीढ़
कौंधी कहीं चितवन
रंग गए कहीं किसी के होठ
निगाहों के ज़रिये जादू घुसा अन्दर
तन गई रीढ़
नागार्जुन का प्रणय वर्णन सामाजिकता, शालीनता और गरिमा से युक्त है। यह प्रेम स्वस्थ प्रेम है, यह प्रेरणादायी है, जिसमें मांसलता की गंध दूर-दूर तक नहीं है। यह प्रेम पूर्ण समर्पण का प्रतीक है। नागार्जुन की प्रेमानुभूति अपने गहनतम रूप में ‘यह तुम थीं’ कविता में व्यक्त हुई है जहाँ वह अपने जीवन के सौंदर्य में अपनी प्रियतमा की छवि निहारते हैं।
कर गई चाक
तिमिर का सीना
जोत की फाँक
यह तुम थीं
सिकुड़ गई रग-रग
झुलस गया अंग-अंग
बनाकर ठूँठ छोड़ गया पतझर
उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की सन्धि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं
सिंदुर तिलकित भाल में कवि अपने घर-परिवार से दूर पड़ा हुआ अपनी पत्नी का तिलकित भाल याद करता है। कवि ने पत्नी के लिए “सिंदूर तिलकित भाल” का बिम्ब चुनकर कलात्मक कल्पना का ही परिचय नहीं दिया है, बल्कि अपने प्रेम को भारत –खासकर उत्तर भारत- की सांस्कृतिक विशिष्टता के माध्यम से पारिभाषित भी किया है। सिंदूर विवाहित स्त्री के सुहाग का प्रतीक है। वे पत्नी के मस्तक पर सुहाग के चिह्न को ही प्रेम के प्रतीक के रूप में चुनते हैं. सिंदूर उनके लिए संस्कृति की एक रूढ़ि भर नहीं है, वह संबंधों की प्रगाढ़ता का प्रतीक-चिह्न भी है. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नागार्जुन के लिए प्रेम एक संस्कार है जो न सिर्फ़ मनुष्य की संवेदनाओं कों विस्तार देता है बल्कि उसकी सोच को भी मानवीयता की गरिमा प्रदान करता है।
नौस्टैल्जिक कविताएँ
नागार्जुन का अधिकाँश जीवन यायावरी और आन्दोलनों में बीता। ऐसे में उन्हें अपना छूटा हुआ गाँव-घर, गाँव के संगी साथी, अमराइयां, और उनमें बोलती कोयल की स्वर लहरी याद आती है। और उनका नौस्टैल्जिया कविताओं में उभर कर आता है।
सिन्दूर तिलकित भाल वैसे तो प्रणय भाव की कविता है पर इस कविता के भीतर उभरी हुई ‘होमसिकनेस’ को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है।
याद आते स्वजन जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आँख,
याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते धान याद आते कमल, कुमुदनी और ताल मखान
याद आते शस्य श्यामल जनपदों के रूप-गुन अनुसार ही
रखे गए वे नाम।
पत्नी की स्मृति के साथ जुड़ी हुई है तरउनी गाँव की, वहाँ के लोगों की, और वहाँ के वस्तुओं की स्मृतियाँ भी। उसे लगता है कि वहाँ के किसानों ने अपनी मेहनत से उपजाई हुई चीज़ों, मसलन अन्न-पानी और भाजी-साग, फूल-फल और कंद-मूल…आदि ने मुझे पाला-पोसा है। उनका मुझपर अपार ऋण है। मैं उनका ऋण चुका नहीं सकता। और विडम्बना यह है कि मैं आज उनसे दूर आ पड़ा हूँ। यहाँ सब चीज़ों के रहते हुए भी कवि आत्मीयता और अपनापन नहीं अनुभव करता है। वह कहता है कि यहाँ भी कोई काम रूकता नहीं, मैं असहाय नहीं हूँ और अगर मर जाऊँगा तो लोग चिता पर दो फूल भी डाल देंगे, लेकिन यहाँ प्रवासी ही माना जाऊँगा, यहाँ रहकर भी यहाँ का नहीं बन पाऊँगा। स्मृति में ही वह पत्नी से कहता है कि तुम्हें जब मेरी मृत्यु की सूचना मिलेगी तो तुम्हारे हृदय में वेदना की टीस उठेगी। तुम तस्वीर में मुझे देखोगी और मैं कुछ नहीं बोलूँगा। अपनी इस भावना को सूर्यास्त के बिम्ब के माध्यम से और भी मार्मिक बनाते हुए नागार्जुन कहते हैं कि शाम के आकाश के पश्चिम छोर के समान जब लालिमा की करूण गाथा सुनता हूँ, उस समय तुम्हारे सिंदूर लगे मस्तक की और भी तीव्रता से याद आती है।
‘बहुत दिनों के बाद’ कविता में कवि पकी फसलों को देखने में, धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान में, जी भर ताल मखाना खाने और गन्ना चूसने में बीते हुए जीवन को याद करता है। इसी तरह ‘सुबह सुबह’ में तलब के लगाए गए दो फेरे, गंवई अलाव के निकट बैठकर बतियाने का सुख लूटना और आंचलिक बोलियों का मिक्सचर कानों की कटोरियों में भरने की कोशिश लगातार डोर होते जा रहे जीवंत क्षणों में लौट जाने या फ़िर उन्हें मनभर जी लेने की ललक ही कही जायेगी।
सुबह-सुबह
तालाब के दो फेरे लगाए
सुबह-सुबह
गँवई अलाव के निकट
घेरे में बैठने-बतियाने का सुख लूटा
सुबह-सुबह
आंचलिक बोलियों का मिक्स्चर
कानों की इन कटोरियों में भरकर लौटा
सुबह-सुबह
यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि ग्रामीण जीवन, प्रकृति और प्रेम की कविताओं कों लिखते समय नागार्जुन का कवि व्यंग्यात्मक नहीं होता। यह भी उनकी ऊर्जा और उपलब्धि ही कही जायेगी कि वे एक ही स्थिति पर व्यंग्यात्मक और रागात्मक दोनों तरह की कविताएँ लिख सकते हैं।
जैसा कि आप जानते हैं कि जिस काव्य के लिए नागार्जुन कों जाना जाता है वह है यथार्थ का चित्रण करता काव्य। आप इसका उपयोग एक टाइम मशीन के रूप में कर सकते हैं। अगले भाग में नागार्जुन की यथार्थपरक कविताओं पर चर्चा होगी।
पहला भाग दूसरा भाग तीसरा भाग चौथा भाग पांचवां भाग छठा और अंतिम भाग
सतिंदर जीत says
सर मुझे कालिदास सच सच बतलाना
सिंधूर तिलकित भाल नागार्जुन की तथा सुदामा पांडे धूमिल की पटकथा कविता व्याख्या सहित मिल सकती हे