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बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग ४

July 15, 2012 By Satish Chandra Satyarthi Leave a Comment

इस भाग को पढने से पहले इस श्रृंखला का पहला, दूसरा और तीसरा भाग पढ़ें। इस भाग में नागार्जुन की कविताओं में आर्थिक यथार्थ और राष्ट्रीयता की भावनाकी चर्चा होगी।

नागार्जुन के काव्य में आर्थिक यथार्थ

नागार्जुन स्वयं हमेशा गरीबी और बेकारी से त्रस्त रहे। इसलिए उनकी कविताओं में गरीबी, आर्थिक वैषम्य आदि को काफी अभिव्यक्ति मिली है। स्वार्थी पूंजीपति वर्ग और उसकी शुभचिंतक सरकार पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं –

निम्नवर्ग की आंत काटकर/ नसें दूह कर मिडिल क्लास की/

रखो ठीक बैलेंस, बल्कि कुछ बचत दिखाओ/ छोटे बड़े

मगरमच्छों को अभय दान दो/ धन्वंतरियों के उन अगणित

अमृत्घतों पर, देखो कोई नज़र न डाले।

वे चाहते थे कि सबको रोजगार के अवसर मिलें, सबकी गरीबी दूर हो और उनके अनुसार इसका समाधान औद्योगीकरण से ही सम्भव था। श्रम की महिमा पर बल देते हुए वे कहते हैं –

सर्वसहनशीला अन्नपूर्णा वसुंधरा। स्तुति नहीं

श्रम कठोर मांगती है। च्च्च्ती आई है सदा से धरती

कर्षण विकर्षण सिंचन परिसिंचन।

नागार्जुन ‘जन-लक्ष्मी’ की कल्पना करते हैं जिस पर सबका हक़ बराबर हो।

राष्ट्रीयता के भाव की कविताएँ

तरह चंद लोग अपने निजी और राजनीतिक स्वार्थों के लिए देश में क्षेत्रवाद का जहर फैला रहे हैं ऐसे में नागार्जुन की यह कविता बड़ी प्रासंगिक मालूम होती है-

स्थापित नहीं होगी क्या/ लाला लाजपत राय की प्रतिमा

मद्रास में/ दिखाई नहीं पड़ेंगे लखनऊ में सत्यमूर्ति।

सुभाष और जे एम सेनगुप्त क्या सीमित रहेंगे

भवानीपुर और श्याम बाज़ार की दूकान तक। तिलक

नहीं निकलेंगे पूजा से बाहर ?

महान राष्ट्रीय नेताओं, कलाकारों और साहित्यकारों के प्रति लिखी गयी उनकी श्रद्धायुक्त कविताओं को देखकर भी उनके राष्ट्रप्रेम का पता चलता है। पर इसका पूरा प्रमाण ६५ जुर ७१ के पाकिस्तानी आक्रमणों के दौरान लिखी गयी उनकी कविताओं में मिल जाता है। ६२ में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के बाद अब तक कम्युनिस्ट रहे नागार्जुन का कम्युनिस्टों से मोहभंग होता है और वे माओ को जमकर गरियाते हैं। यहाँ उन्होंने यह दिखा दिया कि किसी भी व्यक्ति के लिए देशहित विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।

आज तो मैं दुश्मन हूँ तुम्हारा

पुत्र हूँ भारतमाता का

और कुछ नहीं हिन्दुस्तानी हूँ महज

प्राणों से भी प्यारे हैं मुझे अपने लोग

प्राणों से भी प्यारी है मुझे अपनी भूमि।

पाकिस्तानी सेना पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं –

वे हिटलर के नाती-पोते

बाहरी शक्ति जिसका संबल

देखो पीटकर भागे कैसे

वे पाकिस्तानी दानव दल।

नागार्जुन उन क्रांतिकारियों को भी आवाज देते हैं जो शोषण के ख़िलाफ़ मुक्ति के अभियान में लगे हैं-

मशीनों पर और श्रम पर, उपज के सब साधनों पर

सर्वहारा स्वयं अपना करेगा अधिकार स्थापित

दूहकर वह प्रांत जोंकों की मिटा देगा धरा की प्यास

करेगा आरम्भ अपना स्वयं ही इतिहास।

राष्ट्रीय हित के अलावा नागार्जुन ने अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के कल्याण के लिए भी कविताएँ लिखीं।

पहला भाग    दूसरा भाग      तीसरा भाग       चौथा भाग      पांचवां भाग      छठा और अंतिम भाग

 

Filed Under: हिन्दी Tagged With: Hindi Literature, Modern Hindi Poetry, आधुनिक हिन्दी कविता, बाबा नागार्जुन, हिन्दी साहित्य

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