साढ़े तीन साल तक यहाँ रहने के दौरान मैंने इस देश को इतने दुःख और अवसाद में डूबे हुए कभी नहीं देखा. कोरियन लोग दुनिया के सबसे मेहनती और जीवट लोगों में से हैं. जब पूरी दुनिया के लोग नॉर्थ कोरिया के अटैक को लेकर टेंशन में थे तब कोरिया में कोई इसकी बात भी नहीं करता था. लोग बिना किसी चिंता के अपने-अपने काम में लगे हुए थे.
लेकिन पिछले 2 दिनों में जितने भी कोरियन लोगों से मेरी बात हुई सब के सब ने ये बताया कि वे इस दुर्घटना से बहुत परेशान हैं. शायद एक कारण यह भी है कि डूबे जहाज में अधिकतर हाई-स्कूल के बच्चे थे. कोरिया एक ऐसा देश है जहाँ युवा आबादी बड़ी तेजी से कम हो रही है और बूढ़े लोगों की संख्या बढ़ रही है. ऐसे में एक साथ इतने बच्चों का दुर्घटनाग्रस्त होना सिर्फ उनके परिवारों के लिए नहीं पूरे देश के लिए दुख की घटना है.
मलेशियन फ्लाईट और अभी सेवॉल शिप के साथ हुई दुर्घटना से यह अहसास होता है कि हम तकनीकी रूप से अभी कितना पीछे हैं और प्रकृति के आगे कितने विवश. पीड़ितों और उनके परिवारवालों के लिए प्रार्थना ही की जा सकती है.
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My thoughts in My Tongue
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कोरियन सेवॉल जहाज दुर्घटना
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राहुल गांधी vs मोदी vs केजरीवाल
राहुल गांधी
टीचर: तुमने होमवर्क क्यों नहीं किया?
राहुल गांधी: सबसे जरूरी मुद्दा यह है की सिस्टम को बदला जाए. युवाओं को आगे लाया जाए…
टीचर: लेकिन मेरा सवाल था कि तुमने होमवर्क क्यों नहीं किया?
राहुल गांधी: इसके लिए पहले आपको यह समझना पड़ेगा कि राहुल गांधी है कौन, उसका बैकग्राउंड क्या है. अच्छा चलिए पहले मैं आपसे एक सवाल पूछता हूँ कि आप टीचर क्यों बने?
टीचर: _/\_
************************************** नरेन्द्र मोदी
टीचर: तुमने होमवर्क नहीं किया इस बात का तुमको दुःख है? कोई पछतावा है?
नरेन्द्र मोदी: दुःख तो मुझे इस बात का भी है कि आज सुबह मैं शौचालय नहीं गया.
टीचर: बकवास मत करो. बताओ कि होमवर्क नहीं करने के लिए माफी मांगोगे या नहीं.
नरेन्द्र मोदी: मैं चलता हूँ. बस दोस्ती बनी रहे.
टीचर: _/\_
************************************** केजरीवाल
टीचर: तूने होमवर्क क्यों नहीं किया बे?
केजरीवाल: मैं तो बहुत ही छोटा आदमी हूँ, सर. मेरी औकात ही क्या है जो मैं होमवर्क करूंगा. आम आदमी होमवर्क करेगा. देश की जनता होमवर्क करेगी.
टीचर: _/\_ -
लैंगुएज स्टडी करने का बेस्ट तरीका
मेरे पास मेरे ब्लॉग रीडर्स और कभी-कभी जेएनयू, डीयू और अन्य यूनिवर्सिटीज में फॉरेन लैंगुएज पढ़ रहे जूनियर्स के ऐसे मैसेज अक्सर आते हैं कि लैंगुएज कैसे इम्प्रूव करें, Vocabulary कैसे याद करें, Speaking कैसे इम्प्रूव करें वगैरह-वगैरह. लोग जानना चाहते हैं कि लैंगुएज स्टडी करने का बेस्ट मेथड क्या है. लैंगुएज एक्सपर्ट्स, टीचर्स, वेबसाइट्स वगैरह के पास भी सबसे ज्यादा आने वाला क्वेश्चन यही होता है कि किसी विदेशी भाषा को सीखने का बेस्ट तरीका क्या है? आज इस पोस्ट में मैं फॉरेन लैंगुएज स्टडी करने का बेस्ट मेथड शेयर करना चाहूंगा. ऐसा नहीं है कि मेरी खुद कई विदेशी भाषाओं में फ़्लूएंट हूँ और कोई सीक्रेट शेयर करने जा रहा हूँ. चूँकि (कोरियन) लैंगुएज एजुकेशन मेरा मेजर सब्जेक्ट है तो जो थोड़ा बहुत लैंगुएज लर्निंग और टीचिंग के बारे में सीखा है उसके आधार पर मैं बताना चाहूँगा कि लैंगुएज सीखने का सबसे अच्छा तरीका क्या है.
तो सबसे पहले जो बात मैं कहना चाहता हूँ वो ये है कि किसी भी भाषा को सीखने का कोई एक बेस्ट मेथड नहीं होता. इसलिए ये बात भूल जाएँ कि अगर आपका कोई दोस्त किसी लैंगुएज में आपसे बहुत फ़्लूएंट है तो उसका कोई बेस्ट सीक्रेट स्टडी मेथड होगा और वो मेथड हाथ लगते ही आप भी उसके जैसी फर्राटेदार लैंगुएज बोलने लगेंगे. जिस तरीके से आपका दोस्त स्टडी करता है, जरूरी नहीं कि वो आपको भी सूट करे. हर लर्नर की अपनी जरूरतें होती हैं और चीजों की समझने और याद रखने के अलग तरीके होते हैं. इसलिए बेहतर यही है कि आप अलग-अलग तरीकों से स्टडी करके देखें और फिर अपना खुद का बेस्ट मेथड निकालें जो आपको सबसे बेहतर सूट करता हो.
उदाहरण के लिए, कई स्टूडेंट वर्ड्स और उनकी मीनिंग की बड़ी बड़ी लिस्ट बनाकर उन्हें दुहरा-दुहराकर रिपीट करते हैं. लैंगुएज एजुकेशन से जुड़ी अधिकाँश रिसर्च कहती हैं कि वोकैब्युलरी याद करने का यह सही तरीका नहीं है. लेकिन कई लंगुएज लर्नर्स को यही तरीका बेस्ट सूट करता है तो उन्हें रिसर्च या किसी और चीज की परवाह करने की जरूरत नहीं है. वहीं दुसरे स्टूडेंट्स फ्लैशकार्ड बनाकर, चित्रों की मदद से या एक्जाम्पल सेन्टेंस के जरिये शब्दों को याद करना पसंद करते हैं. तो उनके लिए लिस्ट वाला तरीका सही नहीं होगा भले ही कोई स्कॉलर या प्रोफ़ेसर उन्हें ये तरीका रिकमेंड कर रहा हो.
कई छात्र किताबों को पढ़ते हुए ग्रामर और शब्दों की लिस्ट बनाते हैं, उन्हें याद करते हैं, सेन्टेंस बनाकर उनकी प्रैक्टिस करते हैं. कई स्टूडेंट्स को यह तरीका बोरिंग लगता है. वे कुछ मीनिंगफुल, जैसे कहानी/ ब्लॉग वगैरह, पढ़ते हुए उनमें आने वाले ग्रामर और वर्ड्स की स्टडी करते हैं. कई लोगों को यह तरीका भी अच्छा नहीं लगता; वे उस भाषा के गाने सुनते हुए, ड्रामा-मूवी देखते हुए लैंगुएज जल्दी सीखते हैं. मैं ऐसे कई लोगों से मिला हूँ जिन्होंने सिर्फ छह महीने और एक साल में ड्रामा और मूवीज के जरिये लैंगुएज सीखी है और वे उस लैंगुएज के ग्रेजुएट्स से ज्यादा बेहतर बोलते हैं. यहाँ एक चीज और जोड़ना चाहूंगा कि ऐसा अक्सर देखा गया है कि जो स्टूडेंट्स ड्रामा और मूवी देखते हुए हैं लैंगुएज सीखते हैं उनकी स्पीकिंग और लिसनिंग अबिलिटी तो बहुत अच्छी होती है लेकिन अक्सर वो लिखने में कमजोर होते हैं. वे किसी विषय पर coherent और cohesive टेक्स्ट नहीं लिख पाते क्योंकि बोलने की और लिखने की भाषा अलग-अलग होती है. वे स्पेलिंग की भी बहुत गलतियाँ करते हैं. वहीं दूसरी ओर जो लोग किताबों और ग्रामर-वोकैब्युलरी लिस्ट के जरिये लैंगुएज सीखते हैं उनकी राइटिंग ज्यादा अच्छी होती है. स्पीकिंग में भी वो ग्रामैटिकली ज्यादा सही बोलते हैं लेकिन उनकी भाषा में फ्लूएंसी और नेचुरल टोन की कमी होती है. इसलिए दोनों तरीकों का सही कॉम्बिनेशन जरूरी है.
आप जो विदेशी भाषा सीख रहे हैं अगर आपके पास उस देश में रहने का अवसर नहीं है तो उस भाषा में फ्लूएंसी और नेचुरल इंटोनेशन हासिल करना और मुश्किल हो जाता है. क्योंकि भाषा सुनकर सीखी जाती है. किताबें आपको किसी ग्रामर पैटर्न या वर्ड का मतलब बता सकती हैं लेकिन नेचुरल और रियल लाइफ सिचुएशन में कोई सेन्टेंस कब और कैसे यूज होगा यह आपको उस कल्चर में रहकर ही समझ आ सकता है. लेकिन इंटरनेट ने आज पूरी दुनिया को कनेक्ट कर दिया है. बिना उस देश में गए हुए भी आप किसी भाषा के रियल लाइफ यूज, इंटोनेशन वगैरह को समझ सकते हैं. मूवी और ड्रामा तो एक जरिया है ही साथ ही यूट्यूब आजकल लैंगुएज सीखने वालों के लिए बहुत बड़ा रिसोर्स है. सर्च करने पर आपको हर भाषा में अलग-अलग रियल लाइफ सिचुएशंस के वीडियोज मिल जायेंगे और उनको समझाने वाले लैंगुएज लेसंस भी. कई लोग उस देश में रहते हुए भी उपलब्ध रिसोर्सेज का सही इस्तेमाल नहीं कर पाते और लैंगुएज में कमजोर रह जाते हैं जबकि दूसरी ओर आपको ऐसे कई लोग मिलेंगे जो इंटरनेट पर उपलब्ध ऑडियो, वीडियो, ब्लॉग, वेबसाईट वगैरह की मदद से लैंगुएज में प्रोफ़िशिएंट हो जाते हैं.
यहाँ पर मोटिवेशन का फैक्टर बहुत ही इम्पोर्टेंट हैं. आपका लैंगुएज एप्टीट्यूड कितना ही अच्छा हो, आप किसी भी तरीके से स्टडी कर रहे हों; अगर आपके अन्दर उस लैंगुएज और उस देश के कल्चर को समझने के प्रति मोटिवेशन नहीं है तो आपके लिए एडवांस्ड लेवल प्रोफ़िशिएन्सी हासिल करना मुश्किल होगा. यह मोटिवेशन जॉब के लिए हो सकता है, अच्छी स्कॉलरशिप के लिए या फिर उस देश के लोगों, संस्कृति, कला वगैरह में वास्तविक रूचि के कारण. मैं ऐसे कुछ लोगों से मिला हूँ जिन्होंने सिर्फ K-POP में गहरी रुचि के कारण कोरियन लैंगुएज को खुद से सीखना शुरू किया और बिना किसी स्कूल या इंस्टीट्यूट गए बेहतरीन कोरियन बोलते हैं.
आज इंटरनेट पर लैंगुएज सीखने में हेल्प करने वाली बहुत सारी वेबसाइट्स हैं, कम्यूनिटीज हैं और फिर सोशल मीडिया है जिन पर लोग स्टडी रिसोर्सेज, प्रोब्लम्स और सोल्यूशंस शेयर करते हैं. कुछ अच्छी वेबसाइट्स जो मुझे याद आ रही हैं वो हैं – ANKI, MEMRISE और DUOLINGO. अपने टॉपिक गाइड ब्लॉग पर मैंने कोरियन लैंगुएज सीखने के लिए कुछ बेस्ट ऑनलाइन रिसोर्सेज भी शेयर किये हैं. सोशल मीडिया के जरिये आसानी से आप किसी भी भाषा के नेटिव स्पीकर्स से जुड़ सकते हैं उनसे कम्यूनिकेट करते हुए लैंगुएज की प्रैक्टिस कर सकते हैं.
अंत में पर्सनली एक मेथड शेयर करना चाहूंगा जो मुझे लगता है कि बहुत कारगर है. लैंगुएज सीखने वालों के साथ ये एक कॉमन प्रोब्लम होती है कि अपने से बेहतर लैंगुएज जानने वालों या नेटिव स्पीकर्स के सामने बोलने या लिखने में घबराते हैं. उन्हें लगता है कि गलत बोलने पर वे क्या सोचेंगे, शायद हँसेंगे या और कुछ. ये हेजिटेशन लैंगुएज सीखने के रास्ते में सबसे बड़ी समस्या है. आप सोच कर देखें कि बच्चे लैंगुएज क्यों जल्दी सीखते हैं. जब वो टूटे-फूटे वर्ड्स में और ग्रामैटिकली गलत-सलत सेंटेंस बोलते हैं तो वे बोलने से पहले ये नहीं सोचते कि सुनने वाला कौन है या वे जो बोल रहे हैं वो सही है या गलत. बोलते वक्त उनका सिर्फ एक उद्देश्य होता है ‘अपनी बात को सामने वाले तक कम्यूनिकेट करना.’ और यही भाषा का उद्देश्य है. गलत या सही कुछ नहीं होता. अगर आप बहुत ही करेक्ट और भारी-भरकम लेवल की भाषा बोल रहे हैं और सामने वाला समझ नहीं पा रहा तो उसका कोई अर्थ नहीं है. अपनी बात पहुंचाने के लिए बोलें और लिखें; सामने वाले को लिसनर और रीडर समझें, एक्जामिनर नहीं. फेसबुक पर, ब्लॉग पर, डायरी में उस लैंगुएज में लिखें. जब आप लिखेंगे तो आपको खुद पता चलेगा कि कौन से शब्द आपको नहीं पता, कौन सी बात एक्सप्रेस करने में आपको परेशानी हो रही है. फिर उन शब्दों को और एक्सप्रेशंस को इंटरनेट पर सर्च करें और समझें. गलत ही सही पर लगातार लिखते रहें. कुछ ही दिनों के बाद आप देखेंगे कि धीरे-धीरे आपकी लैंगुएज बेहतर होती जा रही है.
आप इस बारे में क्या सोचते हैं? आप लैंगुएज सीखने के लिए कौन सा तरीका इस्तेमाल करते हैं? क्या वह तरीका सफल है?
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एक जनवरी, गाँव और यादें
गाँव में बड़े-बुजुर्ग कहते थे कि फर्स्ट जनवरी के दिन जैसे रहोगे, जो काम करोगे वैसा ही पूरा साल होगा. मतलब ये कि आज सवेरे उठके स्नान-ध्यान करके अच्छे से पढ़ाई करोगे, अपने सारे काम ठीक से करोगे तो पूरा साल वैसे ही अच्छा होगा. इस चक्कर में होता ये था कि ठण्ड कितनी भी हो बच्चे नहा लेते थे. ये सोचके कि आज गंदे रहेंगे तो साल भर गंदे रहेंगे. कुछ आज्ञाकारी बच्चे दिन भर किताब लेकर बैठे रहते.
आजकल स्कूलों का एकेडमिक इयर शायद बदल गया है लेकिन पहले बिहार के सरकारी स्कूलों में नयी कक्षाएं जनवरी से ही शुरू होती थी. इसलिए नयी किताबें, नयी कापियां आतीं. सन्डे वाले रंगीन अखबार से हीरो-हिरोईन के फोटो वाला पेज फाड़कर किताबों पर जिल्द चढ़ाई जाती. फिर स्टेपल किया जाता. कुछ होनहार छात्र उसके ऊपर से प्लास्टिक की चिमचिमी का एक लेयर और चढ़ाते की जिल्द खराब न हो. चिमचिमी वाली जिल्द चढ़ाना सबके बस की बात नहीं थी. यह मेहनत और कलाकारी का काम था. ऐसी जिल्द लगाने वाले लड़कों की छात्र मंडली में बड़ी प्रतिष्ठा होती थी. किसी को जिल्द लगवाना होता तो उन्हें भूंजा, चूड़ा, गुड़, लड्डू वगैरह अर्पित करके आग्रह किया जाता. ये अलग बात है कि किताबों पर सुन्दर जिल्द लगाने वाले ये कलाकार छात्र पढ़ाई में अक्सर भुसकोल होते.
नए साल पर कैलेण्डर बदलने और नयी डायरी/कॉपी खोलकर खोलकर उसपर डेट लिखने का भी अलग चाव था. घर में ठाकुर प्रसाद का कैलेण्डर लगाया जाता जिसमें अग्रेजी तारीख के साथ साथ एकादशी, अमावस्या, पूर्णिमा सबका वर्णन होता था. होली, दिवाली के साथ बिसुआ (सत्तू – गुड़ खाने का पर्व), संक्रांति वगैरह भी दिए होते थे. कैलेण्डर लगाने के बाद सबसे पहले उस साल सरस्वती पूजा और होली का डेट मार्क किया जाता. उसी के हिसाब से पूजा की प्लैनिंग होती, चंदा काटना शुरू करने का डेट डिसाइड किया जाता.
बचपन में गांव में एक जनवरी के दिन हम बच्चा पार्टी मिलके पिकनिक करते थे. कोई अपने घर से आटा लाता था, कोई आलू, कोई तेल-मसाले. और गाँव से बाहर मैदान वगैरह में जाके ईंट वगैरह जोड़कर चूल्हा बनाया जाता था और खाना बनता था – पूरी, परांठे, आलूदम, खीर. किसी को बनाना तो आता नहीं था तो खाना अक्सर जल जाता या कच्चा रह जाता था. लेकिन उस दिन हम बच्चा पार्टी एकदम प्राउड, सेल्फ-डिपेंडेंट टाइप रहते.
सबके घर में उससे बेहतर खाना बना होता उस दिन लेकिन हमलोग घरवालों के सामने एकदम चौड़े रहते कि आज घर में नहीं खायेंगे. हमलोगों का खुद का मस्त खाना बन रहा है. घरवाले और आस-पड़ोस वाले भी मजे लेते कि हमलोगों को भी थोडा चखाओ भई. लेकिन जिसने पिकनिक में आलू-आटा-नगद या कोई और सामान न दिया हो या खाना बनाने, बर्तन धोने में योगदान न दिया हो उसको भोजन स्थल के 500 मीटर के दायरे में फटकने की भी इजाजत नहीं होती थी.
पिकनिक ख़त्म होने के बाद कालिख से काला हुआ बर्तन लेकर घर आने पर गालियों और डंडे की भरपूर संभावना होती थी. उस बर्तन को चुपके से रसोई के गंदे बर्तनों के ढेर में सरका देना कोई हंसी-खेल का काम नहीं था. उसके लिए हाई लेवल की प्रतिभा और कंसेन्ट्रेशन चाहिए होती थी.
आज नए साल में ये सब बातें दिमाग में घूम रही थी. घर फोन किया तो पता चला कि भतीजे बच्चा पार्टी के साथ पिकनिक मनाने निकले हैं और घर पर अपना खाना बनाने को मना कर गए हैं. 🙂
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एक दीवाना, एक ख़्वाब और आम आदमी
दो साल पहले जब अन्ना के नेतृत्व में जन लोकपाल आन्दोलन शुरू हुआ था तो पूरे देश में न सही, कम से कम शहरी निम्न-माध्यम वर्ग और पढ़े लिखे युवाओं के मन में उम्मीद की किरण जगी थी. जो आम आदमी सिस्टम में बदलाव की सारी उम्मीदें छोड़ चुका था उसे एक पल को यह अहसास हुआ कि अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ, कुछ हो तो सकता है. अन्ना, केजरीवाल और किरण बेदी जैसे दो चार मतवालों ने पूरे देश को एक उम्मीद दे दी थी. एक उम्मीद जो यह कहती थी कि आसमान में सुराख हो सकता है, बशर्ते कि पत्थर तबीयत से उछाला जाए. और पत्थर तबीयत से उछालने के लिए जनता सड़कों पर आ गयी थी. सफ़ेद गांधी टोपी पहने सड़क पर उतरी यह जनता सिर्फ कोई भूख और गरीबी से त्रस्त किसान-मजदूर-बेरोजगारों का हुजूम ही नहीं थी. इस भीड़ में एलीट शैक्षिक संस्थानों में पढ़ने वाला, कॉरपोरेट कंपनियों में नौकरी करने वाला वह युवा भी शामिल था जो आम तौर पर सड़क की क्रांतियों का हिस्सा बनना पसंद नहीं करता. इस भीड़ में वो फैशनेबल लड़कियां भी थीं जिनका गाहे-बगाहे इण्डिया गेट पर होने वाले कैंडल मार्च में हिस्सा लेने के अलावा किसी जमीनी आन्दोलन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था. जो लोग दिल्ली की दोपहरें अपने आरामदेह घरों में कोला पीते हुए, टीवी देखते हुए बिताते थे वे आज चिलचिलाती धूप में जंतर मंतर और रामलीला मैदान में उड़ते धूल के गुबार में अपना पसीना बहा रहे थे. और सबसे ख़ास बात यह थी कि गर्मी से कुम्भलाए चेहरों पर कोई शिकन, कोई शिकायत नहीं थी बल्कि एक दमकता तेज था, एक उम्मीद थी, एक ख्वाब था. यह उम्मीद देश के आम आदमी के चेहरे पर दशकों बाद दिखी थी. यह ख्व़ाब युवा आँखों में बरसों बाद दिखा था. और यह आन्दोलन मेरे लिए उसी वक्त अपने उद्देश्यों में सफल हो गया था. पाश ने कहा था कि सबसे ख़तरनाक होता है सपनों का मर जाना. जन लोकपाल पास हो या न हो, भ्रष्टाचार एक झटके में ख़त्म हो न हो जो एक काम इस आन्दोलन ने कर दिखाया वो था मरते सपनों को फिर से ज़िन्दा करने का. और कम से कम मेरे लिए, और मेरे जैसे करोड़ों युवाओं के लिए, यही इस आन्दोलन की सबसे बड़ी सफलता थी.
अन्ना के व्यक्तित्व में जो गरिमा है, समाज और देश के लिए जितना काम उन्होंने अपने जीवन में किया, सच्चाई और ईमानदारी की जो मिसाल उन्होंने अपने पीछे छोड़ी है वह इतिहास में उनका नाम महापुरुषों के साथ लिखवाने के लिए काफी है. पर गांधी के साथ उनकी तुलना पर मुझे शुरू से ही आपत्ति रही है. गांधी के सिद्धांत, गांधी की ईमानदारी, गांधी के विचार भले ही काफी हद तक अन्ना में दीखते हों पर समझ और विचारों में गांधी वाली गहराई का अभाव है. और ऐसा क्यों है इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है. अन्ना की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि उतनी समृद्ध नहीं रही जो गांधी को नसीब हुई थी. उन्हें कम उम्र में पढ़ाई छोड़ कर सेना में नौकरी करनी पड़ी. समाज और राजनीति के बारे में उनकी जो भी समझ है वह उनके सामाजिक कार्यों और आन्दोलनों के साथ-साथ विकसित हुई है. जब वो बोलते हैं तो बौद्धिक परिपक्वता की कमी स्पष्ट झलकती है. लेकिन एक ईमानदार बुजुर्ग की बातों में बौद्धिकता ढूंढना कबीर के देश की संस्कृति कभी रही भी नहीं. और इसलिए पूरा देश आँख मूँद के अन्ना के पीछे चल पड़ा. लेकिन कहीं न कहीं इसके पीछे लोगों का यह भरोसा भी काम कर रहा था कि अन्ना के साथ अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी जैसे लोग हैं जिनके पास न सिर्फ अपनी ईमानदारी की धरोहर है बल्कि जिन्होंने अपनी प्रतिभा का भी लोहा मनवाया है. किरण बेदी ने जहाँ देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी रहते हुए पुलिस को एक नई छवि दी थी वहीं मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविन्द केजरीवाल ने इन्कम टैक्स कमिश्नर की अपनी नौकरी को लात मारकर समाज सेवा को अपना कैरियर बनाया था. लोग इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि जब तक ये प्रतिभाशाली लोग अन्ना के साथ हैं भ्रष्ट राजनीतिक जमात उन्हें मूर्ख नहीं बना पायेगी.
लेकिन जो लोग छह सात दशकों से जनता को मूर्ख बनाकर देश को लूटते आ रहे थे वे इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं थे. उन्होंने झूठे वादों, प्रोपेगेंडा, छल, बल और कूटनीति सबका प्रयोग कर इस पूरे आन्दोलन को असफल बनाने की पूरी कोशिश की. अन्ना, केजरीवाल और आन्दोलन से जुड़े अन्य व्यक्तियों की नीयत और उनके चरित्र पर कीचड़ उछालने में कोइ कमी नहीं छोड़ी गयी. मनीष तिवारी और कपिल सिब्बल ने जहाँ एक ओर इन्हें चोर और भ्रष्टाचारी कहा वहीं लालू जैसे लोग भी ताल ठोंक कर अन्ना और केजरीवाल को चुनौती देते रहे. आन्दोलनकारियों पर लाठियां चलाईं गयीं, उन्हें जेलों में डाला गया. फिर एक वक्त ऐसा आया जब नेता बिरादरी खुलेआम गुंडई और नंगई पर उतर गयी. टीवी चैनलों पर सवाल पूछे जाने लगे कि ये चंद लोग जो जनलोकपाल की मांग कर रहे हैं, ये हैं कौन? किसने इन्हें अपना प्रतिनिधि माना है? देश बदलना है तो चुनाव लड़ें, जीतें और क़ानून बदलें. इसके बाद अनशन, आन्दोलन सबको सरकार द्वारा सीधे तौर पर नकार दिया गया. चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार अंग्रेजों से भी घटिया व्यवहार कर रही थी. जनता में हताशा घर करती जा रही थी. जो आम आदमी कल तक बदलाव के उम्मीद में अपना घर, दुकान, कॉलेज, ठेला सब बंद करके सड़क पर उत्तर आया था, एक बदलाव की उम्मीद मेें उसे फिर से लगने लगा कि कुछ नहीं हो सकता. और ऐसे समय में एक पागल उठा और कहने लगा कि ठीक है, हम राजनीति में उतरेंगे, चुनाव लड़ेंगे, जीत के दिखायेंगे, देश को बदल के दिखायेंगे. कुछ कर गुजरने का जुनून और आत्मविश्वास से लबरेज, चप्पल और 1980 स्टाइल की झोलदार पैंट पर लटकती कमीज पहने यह दीवाना था – अरविन्द केजरीवाल.
लोगों ने कहा है पगला गया है. मुझे भी लगा था कि क्या करने जा रहा है यह आदमी. इन घाघ नेताओं से इन्हीं के मोहल्ले में जाकर लड़ेगा? मेरे जैसे लाखों लोग तमाम आशंकाओं से घिरे हुए थे. लेकिन मन में भी अरविन्द केजरीवाल की नीयत और इरादों को लेकर शायद ही संदेह था. संदेह और डर था तो बस इस बात का कि जो उम्मीद जगी है वो गलत रास्ते पर जाकर कहीं ख़त्म ही न हो जाए. एक बार अगर ये उम्मीद मर गयी तो शायद दुबारा आम आदमी सड़क पर उतरने की हिम्मत पता नहीं कब जुटा पाए. अन्ना के साथ-साथ उनकी टीम के कई और सदस्यों ने केजरीवाल के साथ राजनीति की राह पर चलने से इनकार कर दिया. पर वह दीवाना अकेले ही चल पड़ा. मगर मजरूह के उस शेर की तरह कि “मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और काफ़िला बनता गया” इस दीवाने के पीछे भी एक काफ़िला बनता गया. एक ख्व़ाब लेकर चल रहे लोगों का काफ़िला जिसका नाम रखा इन्होने आम आदमी पार्टी.
अब इस काफ़िले पर हमलों के तौर-तरीके बदल गए थे. जो लोग पहले सवाल कर रहे थे कि देश बदलना है तो राजनीति में क्यों नहीं आते, वही अब यह इलज़ाम लगा रहे थे कि इन्हें तो शुरू से ही राजनीति में आना था. आन्दोलन तो बस एक बहाना था, एक जरिया था. पर ‘आप’ से जुड़े लोग इन तमाम हमलों की परवाह न करते हुए अपने काम में लगन से जुटे रहे. पहली बार एक राज्य की विधानसभा का चुनाव चंदे से जुटाए गए बीस करोड़ रुपयों से लड़ा जा रहा था. पहली बार रिक्शे वाले, ठेलेवाले, छात्र अपने कमाई से, अपने जेबखर्च से दस रुपया, बीस रुपया किसी पोलिटिकल पार्टी को चंदे में दे रहे थे. पहली बार कार्यकर्ता बिना किसी पैसे के लोगों तक पार्टी का प्रचार कर रहे थे, रात में जग-जाग कर पोस्टर लगा रहे थे. पहली बार चुनाव जाति, धर्म के नाम पर नहीं बदलाव, भ्रष्टाचार और विकास के मुद्दों पर लड़ा जा रहा था. जब दिल्ली में करोड़ों रूपये के पंडालों में बड़ी बड़ी रैलियां की जा रही थी, किसी पार्टी के नेता झुग्गियों और बदबूदार नालियों वाली गलियों में चप्पल घिसते हुए जनता से वोट मांग रहे थे. वोट बदलाव के लिए, वोट आम आदमी के लिए, वोट खुद के लिए. लेकिन लोग अब भी इन दीवानों की जीत के बारे में निश्चिन्त नहीं थे. हमले जारी थे, व्यंग्य वाण छूट रहे थे.
जिस दिन दिल्ली चुनाव के नतीजे आये बहुत लोगों के चेहरे सर्द हो गए थे, बहुतों के चेहरे पर अचंभा दिख रहा था तो बहुतों के चेहरे खुशी और उम्मीद से खिल गए थे. केजरीवाल की पार्टी 28 सीटों एक साथ दूसरी बड़ी पार्टी बनके उभरी थी और पंद्रह साल से सरकार चला रही कौंग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया था. खुद मुख्यमंत्री शीला दीक्षित केजरीवाल से बीस हजार से ज्यादा वोटों से चुनाव हार गयी थीं. जनता की लाठी जोरदार लगी थी चोरों पर. शायद जनता में अगर केजरीवाल की जीत के प्रति थोड़ी सी शंका न होती तो वो पूरे बहुमत से जीतते. केजरीवाल ने कहा कि वे विपक्ष में बैठेंगे. पर आलोचकों को चैन नहीं था. उन्होंने हल्ला मचाना शुरू किया कि ये जिम्मेदारी से भाग रहे हैं. कौंग्रेस समर्थन देने को तैयार थी. इसके दो कारण थे- एक तो उन्हें बीजेपी को हर हाल में रोकना था; और दूसरा उन्हें यह दिखाना था की देखो हम ईमानदार पार्टी को सहयोग दे रहे हैं. हालांकि कोई भी ‘आप’ समर्थक यह नहीं चाहता था कि केजरीवाल कौंग्रेस से किसी तरह का समझौता करें पर दूसरी ओर अधिकाँश जनता की यह भी इच्छा थी कि केजरीवाल सरकार बनाएं और जितना भी समय उनको मिलता है उसमें कुछ करके दिखाएं, अपने आपको साबित करके दिखाएँ. जिससे की जनता को पता चले कि वे सिर्फ बातें ही करना जानते हैं या उन्हें अमल में लाना भी. लोगों का यह मानना था कि अगर आम आदमी पार्टी दिल्ली में कुछ करके दिखा पायी तो पूरे देश में एक सन्देश जाएगा, एक उम्मीद जगेगी और शायद अआने वाले चुनावों में इसका फायदा पार्टी को मिले. केजरीवाल ने जनता की इच्छा का सम्मान करते हुए सरकार बनाने का फैसला किया. उन्होंने कहा कि हम किसी से समर्थन नहीं ले रहे. हमारी कुछ शर्ते हैं, कुछ मुद्दे हैं उनको हम विधानसभा में रखेंगे जिस किसी भी पार्टी के विधायक को लगे की ये मुद्दे सही हैं वे पक्ष में मतदान करें और जिन्हें लगता हो कि ये मुद्दे सही नहीं हैं वो विरोध करें. उसके बाद की जो स्थिति बनी थी उसपर मैंने फेसबुक पर लिखा था कि:
केजरीवाल: हम आम आदमी हैं और हमें लोकपाल चाहिए.
आलोचक: तुम हो कौन? हिम्मत है तो चुनाव में आओ. जीत के दिखाओ.
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केजरीवाल: हमें 28 सीटों पर जिताने के लिए जनता को धन्यवाद. हम एक बेहतर विपक्ष की भूमिका निभाएंगे.
आलोचक: ये देखो. झूठे वादे किये. अब जिम्मेदारी से भाग रहे हैं. झूठे, धोखेबाज.
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केजरीवाल: ठीक है. हम सरकार बनाएंगे और वादे पूरे करेंगे. जो हमारी शर्तों को मानते हैं वे समर्थन दें बाकी न दें.
आलोचक: ये देखो. कुर्सी के भूखे. ये शुरू से ही सत्ता में आना चाहते थे.आज दिल्ली के रामलीला मैदान में अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. पूरा मैदान सफ़ेद टोपी पहने तिरंगा लहराते जनसैलाब से भरा था. ऐसा लगा रहा था जैसे लोगों के घर का कोई आदमी मुख्यमंत्री बन रहा हो. ऐसे नज़ारे राजनीति में कम देखने को मिलते हैं. वरना नेताओं को तो पैसे देकर ट्रकों में भरकर लोग लाने पड़ते हैं. कहाँ तो पार्टियों के अपने कार्यकर्ता भी पार्टी की टोपी नहीं पहनते, यहाँ हर आदमी सफ़ेद गांधी टोपी में घूम रहा था. यह सही मायनों में आम आदमी का शपथ ग्रहण था. आम आदमी ने सिहांसन छीना था. महात्मा गांधी ने कहा था – “First they ignore you, then they laugh at you, then they fight you, then you win.” यह बात कितनी सटीक बैठ रही है आज. केजरीवाल और उनकी पार्टी अपने वादों पर और हमारी अपेक्षाओं पर खरे उतरते हैं या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा पर फिलहाल मैं सिर्फ इसलिए खुश हूँ कि आम आदमी की उम्मीद को मरने से बचा लिया गया हैं. केजरीवाल अगर हार जाते तो आने वाले समय में कोई पढ़ा-लिखा युवा राजनीति के कीचड़ में घुसने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. इस जीत ने उसके ख़्वाबों को अभी ज़िंदा रखा है. उसके इरादों को मजबूत किया है. इन्हीं उम्मीदों, ख़्वाबों और इरादों के सहारे हमें आगे बढ़ना है. बदलाव के लिए, एक बेहतर भारत के लिए.
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फेसबुक पर इंटेलेक्चुअल कैसे दिखें
क्या आप इस बात से परेशान हैं कि आप इत्ते बड़े इंटेलेक्चुअल हैं लेकिन आपके फेसबुक फ्रेंड्स आपको
चूतियाबेवक़ूफ़ समझते हैं? क्या फेसबुक पर चौबीस घंटे अलग अलग सब्जेक्ट्स परबकैती करनेस्टेटस लिखने के बावजूद लोग आपको एक बुद्धिजीवी के रूप में आदर-सम्मान नहीं देते? क्या अपनी फेसबुक वाल पर लाइक्स और कमेंट्स के इंतज़ार में आपकी आँखें दुखने लगती हैं लेकिन कोई भूले-भटके भी उधर नहीं आता? क्या फेसबुक पर आपको सुन्दर कन्याओं के फ्रेंड रिक्वेtiस्ट नहीं आते और आपके फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने पर कन्याएं आपको ब्लॉक कर देती हैं? क्या आपके द्वारा शेयर की गयी जानकारी से भरी तस्वीरों और साईं बाबा के पोस्टर्स को लोग रिपोर्ट कर देते हैं. क्या लोग आपके द्वारा प्रेमपूर्वक किये गए टैग को तुरंत रिमूव कर आपको प्राइवेट मैसेज सेगालीसन्देश भेजते हैं? अगर इन सभी प्रश्नों का जवाब हाँ है तो इसका मतलब है कि आपके व्यक्तित्व में इंटेलेक्चुअल तत्व की भारी कमी है अर्थात आप इंटेलेक्चुअल कुपोषण के शिकार हैं आई मीन आपका फेसबुक प्रोफाइल इंटेलेक्चुअल कुपोषण का शिकार है. और आजतक मेडिकल सायंस फेसबुक के कर्मठ लोगों के इंटेलेक्चुअल कुपोषण को दूर करने का तरीका नहीं ढूंढ पाया है. लेकिन अगर आप इस पेज पर आ चुके हैं (जो कि आप आ ही चुके हैं अगर आप ये पढ़ रहे हैं) तो आप बिलकुल सही जगह पर हैं. इस ब्लॉग पर फेसबुक पीड़ितों की तसल्लीबख्श मरम्मत की जाती है. तो आज इस पोस्ट में मैं आपको बताऊंगा कि फेसबुक पर इंटेलेक्चुअल अर्थात बुद्धिजीवी कैसेबनेंदिखें. दुसरे शब्दों में कहें तो फेसबुक पर अपना भोकाल कैसे बांधें.अब अगर आप यह पूछ सकते हैं कि भाई बुद्धिजीवी काहे को दिखें? बुद्धिजीवी दिखने की क्या जरूरत है? तो मेरा उत्तर यह होगा कि वैसे तो ऊपर के सारे प्रश्नों का उत्तर हाँ में देने के बाद आपको
चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिएयह प्रश्न पूछना नहीं चाहिए, पर आपने पूछ ही लिया है तो मैं बताता हूँ. पहली बात, आपने देखा होगा कि फेसबुक पर कुछ लोग बड़े पोपुलर होते हैं- तीन-चार हजार फ्रेंड्स, सैंकड़ों फौलोअर्स, हर सड़े-गले पोस्ट पर दो-चार सौ लाइक्स और कमेंट्स. हर फोटो पर सौ-दो सौ बालिकाओं के आय-हाय-उह-आह. मुझे पता है कि आपका खून खौल जाता है जब आप देखते हैं कि उसके ठीक नीचे आपकी पोस्ट पर तीन लाइक्स और एक कमेन्ट है वो भी आपके चचेरे भाई का. तो ऐसा नहीं है कि ये सारे पोपुलर लोग कोइ बड़े विद्वान या इंटेलेक्चुअल हैं. लेकिन इन सबमें एक बात कॉमन है कि ये इंटेलेक्चुअल दिखते हैं और यही इनका यूएसपी अर्थातअंडरवीयर स्पेशल प्वायंटयूनिक सेलिंग प्वायंट है. अब इनके लेवल तक पहुँचने के लिए आपके पास दो रास्ते हैं – १) इंटेलेक्चुअल बनें या २) इंटेलेक्चुअल दिखें.पहला रास्ता अर्थात इंटेलेक्चुअल बनने का रास्ता बड़ा कठिन है और अगर आप मूर्ख हैं तो आपको इसी रास्ते को चुनना चाहिए. इसके लिए आपको बैल की तरह सैंकड़ों किताबें पढनी होंगी. उल्लू की तरह रात-रात भर जाग कर चीजों पर चिंतन मनन करना होगा और उसके बाद भी सफलता की गारंटी नहीं है. इसलिए अधिकतर समझदार लोग और विद्वतजन दूसरा रास्ता चुनते हैं, अर्थात इंटेलेक्चुअल दिखने का रास्ता. यह रास्ता परम सरल और सुखभरा है. इस रास्ते पर चलने से पहले का जरूरी स्टेप यह है कि आप यह मान लें कि आप दुनिया में कोइ माई का लाल आपसे ज्यादा बड़ा इंटेलेक्चुअल नहीं है. ऐसा मान लेने के बाद आपका आधा कुपोषण ठीक उसी तरह दूर हो जाता है जैसे मनरेगा के आने से देश से गरीबी दूर हो गयी. इस स्टेप के बाद आप फेसबुक पर अपनी बुद्धिजीवी छवि को मजबूत करने के लिए कुछ वैसे ही कड़े कदम उठाएं जैसे घुसपैठ के बाद पाकिस्तान पर मनमोहन सिंह उठाते हैं. ये कड़े कदम निम्नलिखित हैं:-
1. ब्लैक एंड व्हाईट प्रोफाइल फोटो :- वो जो प्रोफाइल फोटो में आपने उन्नीस सौ सतहत्तर की पासपोर्ट साइज फोटो लगा रखी है पहले उसे हटा दें. हो सके तो उस मनहूस फोटो को कम्प्यूटर से परमानेंटली डिलीट मार दें. आपकी एक चौथाई कृपा तो वहीं रुकी हुई है. ओके. अब किसी कैमराधारी मित्र को चाय-समोसा खिलाकर एक ब्लैक एंड व्हाईट फोटो निकलवाएँ. उससे बोलें कि फोटो जितनी खराब आ सके उतना अच्छा. एक्सपोजर और लाइटिंग जान बुझकर गड़बड़ करने को बोलें और कहें कि कैमरे को आड़ा तिरछा करके फोटो ले. वो तिरछा न करे तो आप खुद ही तिरछे हो जाएं.
2. भोकाल हुलिया :- फोटो खिंचवाने से दो दिन पहले से खाना खाना और नहाना-धोना छोड़ दें. कुल मिलाकर आप फोटो से उन्नीसवीं सदी के अकाल में टीबी से पीड़ित किसान दिखने चाहियें. इससे फोटो में भयंकर इंटेलेक्चुअल लुक आएगा. नंबर दो, फोटो खिंचवाने के तीन महीने पहले से शेव करना छोड़ दें. अरस्तू और सुकरात से लेकर टैगोर तक आजतक दुनिया में जितने भी बुद्धिजीवी हुए हैं उनमें से किसी को भी बिना दाढ़ी के देखा है? नहीं न? तो फिर आप क्यों
चूतिया टाइप सेक्लीन शेव में बाबा बने फिर रहे हैं? नंबर तीन, चश्मा पहनिए. हो सके तो काली मोटी फ्रेम वाला.3. कवि और शायर बनें :- हर बात को कविता और शायरी में कहें. इससे बात का वजन बढ़ता है. मूर्खों की तरह कविता की क्वालिटी पर ध्यान न दें. एक कविता लिखने में दस मिनट से ज्यादा लग जाए तो धिक्कार है आप पर. एक्चुअली आपको कविता लिखनी ही नहीं है. पहले आपको जो बात लिखनी हो वो लिख लें फिर उसी में बस बीच-बीच में कौमा और एंटर बटन मारते चलें. बीच में शब्दों को ऊपर नीचे भी कर दे सकते हैं. बस रेडीमेड कविता तैयार. उदाहरण के लिए आपको लिखना है कि “देश का गरीब परेशान है भूखमरी और गरीबी से और सरकार घटा रही है स्मार्टफोन के दाम. इस देश को गड्ढे में जाने से कोई नहीं रोक सकता.” तो इसे ऐसे लिखें:
देश का गरीब
परेशान है,
भूखमरी और गरीबी से,
और सरकार घटा रही है
स्मार्टफोन के दाम.
कोई नहीं रोक सकता
इस देश को,
गड्ढे में जाने से.
:- [कवि – फलाना जी ढिमकाना]
ऐसे कविता और शायरी में लिखने से आपकी बुद्धिजीवी इमेज तो बनेगी ही, हो सकता है दो चार साल में आप साहित्य के दस-बीस सम्मान-वम्मान भी बटोर लायें. साहित्य के सेमिनारों और कॉन्फ्रेस वगैरह का मुफ्त निमंत्रण मिलेगा सो अलग. इन सेमिनारों में जलपान और भोजन अच्छा मिलता है. मने बता रहे हैं.
4. भौकाल फोटोग्राफर :- यह साइंटिफिकली प्रूव्ड है कि अगर कोई कुरता-जींस और चप्पल में भारी-भरकम डीएसएलआर कैमरा, लेंस और ट्राईपॉड लिए घूम रहा है तो वह और कुछ हो न हो इंटेलेक्चुअल तो जरूर ही होगा. भले ही आपको कैमरा में फोटो खींचने वाला एक बटन दबाने के अलावा और कुछ न आता हो लेकिन रखें डीएसएलआर कैमरा ही. और फोटो ज्यादातर ब्लैक एंड व्हाईट और सीपिया टोन में खींचें. फोटो हमेशा रैंडम चीजों की खींचें. टूटी-चप्पल, जंग लगा खम्भा, कूड़े पर सोती मरियल कुतिया, फूल के बगल में गिरा गोबर आदि. गरीब और भिखारी सबसे अच्छे फोटो सब्जेक्ट्स होते हैं. इनकी बड़ी डिमांड है इंटेलेक्चुअल्स के बीच. इसलिए गरीबी की फोटो बराबर खींचें और हाँ फोटो पर ‘फलाना फोटोग्राफी’ का वाटरमार्क लगाना न भूलें. क्या पता कल को टाइम मैगजीन वाले बिना आपसे पूछे कवर पर छाप दें. इनका कोइ भरोसा नहीं. अपनी फोटोग्राफी का एक फेसबुक पेज और एक ब्लॉग भी बनाएं और अपने सारे फ्रेंड्स को उसे ज्वायन करने का इनविटेशन हफ्ते में दो बार जरूर भेजें.
5. नो सरल एंड स्पष्ट बात:- सरल और स्पष्ट तरीके से बोलना या लिखना पूअर कॉमन पीपल की निशानी है. बुद्धिजीवी को अपनी बात ऐसे गूढ़ और जटिल तरीके से लिखनी चाहिए कि कोई गलती से भी समझ न पाए. इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कोइ बात लिखने के बाद उसमें आये सरल शब्दों को डिक्शनरी देखकर गूढ़ शब्दों से रिप्लेस करें और खुद पढ़कर देख लें कि बात के समझ आने की कोइ संभावना तो नहीं बची. उसके बात पोस्ट करें. दूसरे की पोस्ट पर कमेन्ट करते समय भी ऐसी ही प्रक्रिया अपनाएं. लोग आपकी बात एक-दो बार नहीं समझेंगे तो आपको मूर्ख समझेंगे; हमेशा ही नहीं समझ पायेंगे तो खुद को मूर्ख समझने लगेंगे.
6. विवाद पैदा करें :- यह सबसे महत्वपूर्ण है. इस बात का ख़ास ध्यान रखें कि आपकी एक भी बात ऐसी न हो जिसपर विवाद या बहस न हो. सब लोग किसी बात को गलत कह रहे हों तो आप लिखें कि इससे सही बात हो ही नहीं सकती. सबलोग एक व्यक्ति या आन्दोलन को सही बता रहे हों तो आप लिखें कि ऐसा चोर व्यक्ति आपने आजतक देखा ही नहीं और ये आदोलन तो सबसे बड़ा ढोंग है. ऐसी बातें लिखें जो परले दर्जे की बेवकूफी और बकैती हो और जिसे देखकर अच्छे-भले आदमी का ब्लड-प्रेशर बढ़ जाए और उसका मन करने लगे कि आपको सौ गाली दे और गिन कर दस जूते मारे. बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा? बहस जीतने के अचूक उपाय मैंने ऑलरेडी यहाँ बता रखे हैं.
7. वामपंथी-कम-नास्तिक-कम-नारीवादी बनें : – ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी वाले कह रहे हैं कि अगले एडिशन में वामपंथी, नास्तिक और नारीवादी के अर्थ में बुद्धिजीवी जोड़ दिया जाएगा क्योंकि यह बात वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुकी है. कोई व्यक्ति यह बोल दे कि भगवान् और धर्म ही दुनिया की सारी बुराइयों की जड़ है, या ये कि वो मार्क्स के समाजवादी सिद्धांतों का अनुयायी है या ये कि वो मानता है कि दुनिया के सारे मर्द नीच और दुष्ट हैं तो फिर उसके बाद उसको खुद को बुद्धिजीवी साबित करने के लिए कुछ और कहने की जरूरत नहीं रह जाती. इसलिए इस रामवाण को आप भी जरूर आजमाकर देखें.
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आधी आबादी – सीन दो
“यार ये उधर मोड़ पर क्या हल्ला हो रहा है?”
“अरे वो गली नंबर दो वाले शर्मा जी की लड़की को मोड़ पर वाले दो-चार लड़कों ने कुछ बोल दिया था. उसी का मजमा लगा है. शर्मा जी गाली दे रहे हैं और लोग खड़े होकर मजा ले रहे हैं.”
“अच्छा-अच्छा.. ये मोड़ पर के लौंडे तो सारे बिगड़े हैं ही. पर यार ये शर्मा भी कम अंग्रेज थोड़े न है. चार बित्ते कि लौंडिया को साइकिल और मोबाइल पकड़ा दिया है. कान में इयरफोन लगाके चकल्लस काटती फिरती है. किसी मनचले ने कुछ बोल दिया होगा. जवान लौंडे हैं, अभी नहीं ये सब करेंगे तो कब करेंगे. अपनी लड़की संभाली नहीं जाती, चले हैं मोहल्ले पे फौजदारी करने.”
“बात तो सही ही कहे हो चौधरी. लड़की सही हो तो कोइ आँख उठा के ना देख सके.”
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आधी आबादी – सीन एक
“मां, स्कूल से आते वक्त रास्ते में रोज उस मोहल्ले के चार लड़के मेरे पीछे-पीछे साइकिल पर आते हैं. कभी-कभी उल्टा-पुल्टा, गन्दा-संदा भी बोलते रहते हैं. आज मैंने पलट के जोर से गालियाँ दी, पांच मिनट तक. आसपास के अंकल जी लोग भी जमा हो गए. पर सब उन लड़कों की जगह मुझे ही अजीब टाइप से घूर रहे थे. जैसे मैंने ही गलत किया हो.”
“तुझे क्या जरूरत थी रुक कर उनसे मुंह लगने की. तुझे कितनी बार बोला है कि रास्ते में इधर-उधर किसी से कोई मतलब मत रखा कर. कौन साइकिल से कहाँ जा रहा है क्या बोल रहा है इससे तुझे क्या. वो तो बेशरम कुत्ते हैं ही, उनसे मुंह लगके तेरा ही मुंह ख़राब होगा.
चल अब हटा बीती बात को. और सुन, भूल के भी ये सब अपने भाई को मत बताना. तुझे तो डांटेगा ही, फालतू का लड़-वड़ के और आ जाएगा. और पापा को तो बिलकुल भी मत बताना. वरना जो स्कूल जाती है वो भी बंद हो जायेगा.”
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फेसबुक पर बहस कैसे जीतें
ज्ञानी और बुद्धिजीवी होना दो अलग अलग चीजें हैं. ज्ञानी तो कोई भी हो सकता है पर बुद्धिजीवी होना सबके बस की बात नहीं. इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है – फेसबुक पर, ट्विटर पर. ब्लॉग्स की जमीन से जुड़ना पड़ता है. समाज, राजनीति, दर्शन, धर्म जैसे गूढ़ विषयों पर सतत ज्ञान ठेलना पड़ता है. क्योंकि विश्व को बदलने का पवित्र काम बुद्धिजीवी पूरी तरह अपने जिम्मे ले लेता है. अब मुझे अच्छी तरह पता है कि आप ज्ञानी और बुद्धिजीवी दोनों हैं. खासकर फेसबुक की अज्ञानी जनता को शिक्षित करना आपने अपने जीवन का परम उद्देश्य मान लिया है. और इसके लिए आप सदैव जो थोडा-बहुत ज्ञान आपके पास है वो फेसबुक पर ठेलते रहते हैं. आप लोगों को सदैव अपनी बातों पर बहस के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं. पर बहस से आपका मतलब हमेशा ‘आपके पक्ष में बहस’ होता है. लेकिन कई मूर्ख इस सरल सी बात को नहीं समझ पाते और आपकी बातों को घटिया और कूड़ा बताने लगते हैं. बातें घटिया और कूड़ा हैं ये आपको भी पता है लेकिन इसका ये मतलब थोड़े है कि कोई सरेआम बोल देगा. बुद्धिजीवी की अपनी प्रतिष्ठा है भई. इस पोस्ट का उद्देश्य यही है कि ऐसे नीचों, मूर्खों और दुष्टों को कैसे बहस में हराकर सबक सिखाया जाए. नीचे लिखे कुछ बिन्दुओं का ध्यान रखके आप आसानी से फेसबुक के ‘चर्चा-चक्रवर्ती’ बन सकते हैं.
१) कुछ भी कूड़ा टाइप गलत-सलत लिखकर बहस शुरू करने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि आसपास भक्तों और चमचों का एक पूरा बैकअप सपोर्ट हो जो आपके लिखे कूड़े को भी अरस्तू और सुकरात के लेवल का बताए और आपकी बात को गलत कहने वाले पर दाना पानी लेकर पिल जाए. ऐसी प्रोडक्टिव टीम के साथ होने पर आप आधी बहस तो शुरू होने से पहले ही जीत जाते हैं.
२) आपकी मजबूत टीम को देखकर कमजोर दिलवाले विरोधी तो बहस में घुसने का साहस ही नहीं करेंगे और चुपचाप या तो निकल लेंगे या अन्य विरोधियों के कमेंट्स को चुपके-चुपके लाइक करेंगे. लेकिन अगर कोई दुस्साहसी बहस शुरू करने की हिम्मत कर भी लेता है तो घबराएं नहीं. मैं आपको कुछ ऐसे अचूक नुस्खे बताऊंगा जिससे सामने वाला औंधे मुंह गिरने के बाद पानी भी नहीं मांगेगा.
३) अगर विरोधी कोई प्रभावशाली सम्पादक, चैनल वाला, सरकारी अफसर या कोई ऐसा व्यक्ति हो जिससे भविष्य में आपको काम पड़ सकता हो तो “आप भी ठीक कह रहे हैं.. आप तो ज्ञानी हैं, हें हें हें.. “ टाइप के कमेन्ट लिखकर बहस को वहीं ख़त्म करें. सामने वाले की तारीफ़ कर देने से सामने वाला बहस या तो शुरू ही नहीं करेगा या करेगा तो आक्रामक नहीं रहेगा.
४) अब बात तब की, जब विरोधी ऐसा हो जिससे आपको निकट भविष्य में कोई काम नहीं पड़ने वाला. इस स्थिति में शुरू की पंक्ति का आक्रमण तो अपने भक्तों को ही संभालने दें. छोटे मोटे विरोधियों को तो वो ही अपने उल-जुलूल गंद टाइप कमेंट्स से पस्त कर देंगे. अगर भक्त जन गाली-गलौज पर उतर जाएं तो बीच-बीच में आकर इसकी हल्की सी निंदा कर दें. पर निंदा मीठी सी डांट टाइप होनी चाहिए जिससे कि भक्तजन बुरा न मान जाएं और अपने काम में लगे रहें.
५) जब आपको लग जाये कि विरोधी कुछ ज्यादा ही दुस्साहसी है और आपके भक्त अब उसके तर्कों के आगे नहीं टिक पा रहे हैं तो आप बहस में प्रवेश करें पर इस मुद्रा में कि आप सामने वाले के निम्न स्तर के तर्कों का उत्तर देकर उसपर कृपा कर रहे हैं. आप नीचे दिए गए (कु)तर्कों से कड़े से कड़े बहसबाज को चारों खाने चित कर सकते हैं.
६) “आप कमेन्ट करने से पहले मेरी बात को फिर से ठीक से पढ़ें” इस तर्क के द्वारा बिना कहे आप यह सिद्ध कर देंगे कि सामने वाला या तो मूर्ख है और बात को ठीक से समझे बिना तर्क कर रहा है या फिर उसमें आपकी उच्च कोटि की बात को समझने की उसके पास काबिलियत ही नहीं है.
७) “आपको इस विषय के बारे में कुछ पता ही नहीं है. आप पहले फलाना और ढिमकाना फिलोस्फर्स को ठीक से पढ़ें, इतिहास को समझें फिर बहस करें.” ऐसा आप इस कॉन्फिडेंस के साथ कहें कि जैसे आपने उन सारे दार्शनिकों के दर्शन और पूरे इतिहास को घोंट रखा हो. इस तर्क के आगे अच्छे-अच्छे विद्वान बहसबाज का आत्मविश्वास चुक जाएगा. आप दार्शनिकों का नाम ढूँढने के लिए गूगल सर्च और विकिपीडिया की मदद ले सकते हैं. संभव हो तो झटपट इंटरनेट से ढूंढ कर बड़े-बड़े क्लिष्ट पेजों के दस-बीस लिंक दे दें और बोलें कि इनको पढ़के आयें फिर आप ठीक से इस मुद्दे पर बहस कर पाएंगे. लिंक चुनते वक्त इस बात का ध्यान रखें कि सामग्री इतनी जटिल और बोरिंग हो कि उसका लेखक खुद भी उसे दुबारा पढने की हिम्मत न कर पाए.
८) “लगता है आपने भारतीय संविधान/ वेद/ कुरआन/ बाइबिल/ अलाना-फलाना ग्रन्थ का ठीक से अध्ययन नहीं किया.” यह तर्क भी अचूक है. क्योंकि आपको पता है कि आज तक देश में किसी ने भी इन सारे ग्रंथों का ‘ठीक से’ अध्ययन नहीं किया. आपने तो एक बार इन्हें पलट के भी नहीं देखा. लेकिन इस तर्क से आपकी ऐसी इमेज बनेगी जैसे आपने इन ग्रंथों पर शोध कर रखा हो. इससे आपका वर्तमान विरोधी तो तिलमिला ही जायेगा साथ में भविष्य में भी लोग आपसे बहस करने से पहले दस बार सोचेंगे.
९) “आप पूंजीवादी, साम्प्रदायिक, ब्राह्मणवादी, और मनुवादी हैं. आप गरीब जनता के दुश्मन हैं, देशद्रोही हैं, गद्दार हैं’ इस तरह के तर्क के बाद अधिकाँश समझदार विरोधी मैदान छोड़ कर भाग खड़े होंगे. ऐसा आरोप लगाने से पहले व्यक्ति का बैकग्राउंड वगैरह जानने में समय बिलकुल नष्ट न करें. ऐसा तर्क करने से यह बात स्वयंसिद्ध हो जायेगी कि आप पूंजीवादी, साम्प्रदायिक, ब्राह्मणवादी और मनुवादी नहीं हैं और गरीब जनता के सच्चे हितैषी हैं. आप विरोधी को यह भी कह सकते हैं कि “आप सामाजिक सरोकारों से नहीं जुड़े हैं, आप सिर्फ एसी कमरे में बैठकर बहस करने वाले हैं वगैरह वगैरह.” इससे आपके जमीन से जुड़े होने का प्रमाण मिलेगा.
१०) आपके इन सारे जाबड़ तर्कों के बाद भी अगर सामने वाला अपने तर्कों और तथ्यों के साथ डटा हुआ है तो आप अंतिम अस्त्र अर्थात सरेआम गाली-गलौज और लंगटई पर उतर सकते हैं. मुझे पता है कि आप इस हथियार का इस्तेमाल बहस के शुरू में ही करना चाहते थे पर अब तक धैर्य धारण कर आपने अपने संस्कारों का परिचय दिया. अब आप विरोधी के रंग-रूप, धर्म, जाति, खानदान आदि पर जोरदार प्रहार करें. उसके परिवार की स्त्रियों को भी बहस में घसीट कर अपनी गंवई या परिष्कृत गालियों से उनका उचित सम्मान कर सकते हैं. यह अपने लंठ भक्तों को भी सांड की तरह खुला छोड़ देने का भी उचित समय है. उम्मीद है इस चरण के बाद बहस में आप विजेता की तरह सर ऊँचा किये खड़े होंगे.
बोनस टिप्स:- अगर कोई विरोधी ज्यादा ही पढ़ा लिखा और समझदार लग रहा हो और बड़े ही सटीक शब्दों में अपनी बात रख रहा हो और उसके साथ चाहकर भी आप लंगटई पर न उतर पा रहे हों तो आप दो अचूक अस्त्रों का इस्तेमाल करें – १. चुप्पी – बाकी सारे उल-जुलूल कमेंट्स का जवाब देते चलें पर उसके तर्कों को लगातार इग्नोर करते रहें. इससे वो अंत में अपने आप थककर बहस छोड़ कर निकल जाएगा और बाकी लोगों को लगेगा कि शायद उसके तर्क आपके विद्वता के स्तर से काफी नीचे थे इसलिए आपने उनका उत्तर देना वाजिब नहीं समझा. २. ब्लॉक – ऐसे समझदार लोगों को अपने आसपास रखना समझदारी का काम नहीं है. ये कभी भी सरे बाजार आपकी धोती उतार सकते हैं. इसलिए इनको तुरंत प्रभाव से ब्लॉक कर दें. और इनके स्थान पर दो चार मूर्ख भक्तों की फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर लें.
*महत्वपूर्ण नोट: बहस के दौरान कभी भी अपनी बात को सरल शब्दों और वाक्यों में न रखें. इससे आपकी बेवकूफी पकड़ी जा सकती है. हमेशा क्लिष्ट शब्दों और दो चार लाइन के लम्बे वाक्यों का इस्तेमाल करें. भार्गव की डिक्शनरी, हिन्दी साहित्य के क्लिष्ट शब्दों का कलेक्शन और दस-बीस अंग्रेजी दार्शनिकों के नाम की लिस्ट को हैंडी रखें. बीच-बीच में किसी फिलौस्फर की अंग्रेजी में कही बात को इंटरनेट से कॉपी पेस्ट मार दें. ध्यान दें कि मूल लेखक का नाम हटाकर यह लिखना न भूलें कि यह विचार अभी-अभी आपके दिमाग में आया. शायरी और कविता की कुछ किताबें भी अपनी टेबल पर रखें. खासकर प्रगतिशील टाइप कवि और शायरों के किताबें ज्यादा कारगर होती हैं.
और सबसे महत्वपूर्ण बात: इन टिप्स को अपने विरोधियों के साथ बिलकुल शेयर न करें.