एक जनवरी, गाँव और यादें

by Dr. Satish Chandra Satyarthi  - January 1, 2014

Happy New Year

गाँव में बड़े-बुजुर्ग कहते थे कि फर्स्ट जनवरी के दिन जैसे रहोगे, जो काम करोगे वैसा ही पूरा साल होगा. मतलब ये कि आज सवेरे उठके स्नान-ध्यान करके अच्छे से पढ़ाई करोगे, अपने सारे काम ठीक से करोगे तो पूरा साल वैसे ही अच्छा होगा. इस चक्कर में होता ये था कि ठण्ड कितनी भी हो बच्चे नहा लेते थे. ये सोचके कि आज गंदे रहेंगे तो साल भर गंदे रहेंगे. कुछ आज्ञाकारी बच्चे दिन भर किताब लेकर बैठे रहते.

आजकल स्कूलों का एकेडमिक इयर शायद बदल गया है लेकिन पहले बिहार के सरकारी स्कूलों में नयी कक्षाएं जनवरी से ही शुरू होती थी. इसलिए नयी किताबें, नयी कापियां आतीं. सन्डे वाले रंगीन अखबार से हीरो-हिरोईन के फोटो वाला पेज फाड़कर किताबों पर जिल्द चढ़ाई जाती. फिर स्टेपल किया जाता. कुछ होनहार छात्र उसके ऊपर से प्लास्टिक की चिमचिमी का एक लेयर और चढ़ाते की जिल्द खराब न हो. चिमचिमी वाली जिल्द चढ़ाना सबके बस की बात नहीं थी. यह मेहनत और कलाकारी का काम था. ऐसी जिल्द लगाने वाले लड़कों की छात्र मंडली में बड़ी प्रतिष्ठा होती थी. किसी को जिल्द लगवाना होता तो उन्हें भूंजा, चूड़ा, गुड़, लड्डू वगैरह अर्पित करके आग्रह किया जाता. ये अलग बात है कि किताबों पर सुन्दर जिल्द लगाने वाले ये कलाकार छात्र पढ़ाई में अक्सर भुसकोल होते.

नए साल पर कैलेण्डर बदलने और नयी डायरी/कॉपी खोलकर खोलकर उसपर डेट लिखने का भी अलग चाव था. घर में ठाकुर प्रसाद का कैलेण्डर लगाया जाता जिसमें अग्रेजी तारीख के साथ साथ एकादशी, अमावस्या, पूर्णिमा सबका वर्णन होता था. होली, दिवाली के साथ बिसुआ (सत्तू – गुड़ खाने का पर्व), संक्रांति वगैरह भी दिए होते थे. कैलेण्डर लगाने के बाद सबसे पहले उस साल सरस्वती पूजा और होली का डेट मार्क किया जाता. उसी के हिसाब से पूजा की प्लैनिंग होती, चंदा काटना शुरू करने का डेट डिसाइड किया जाता.

बचपन में गांव में एक जनवरी के दिन हम बच्चा पार्टी मिलके पिकनिक करते थे. कोई अपने घर से आटा लाता था, कोई आलू, कोई तेल-मसाले. और गाँव से बाहर मैदान वगैरह में जाके ईंट वगैरह जोड़कर चूल्हा बनाया जाता था और खाना बनता था – पूरी, परांठे, आलूदम, खीर. किसी को बनाना तो आता नहीं था तो खाना अक्सर जल जाता या कच्चा रह जाता था. लेकिन उस दिन हम बच्चा पार्टी एकदम प्राउड, सेल्फ-डिपेंडेंट टाइप रहते.

सबके घर में उससे बेहतर खाना बना होता उस दिन लेकिन हमलोग घरवालों के सामने एकदम चौड़े रहते कि आज घर में नहीं खायेंगे. हमलोगों का खुद का मस्त खाना बन रहा है. घरवाले और आस-पड़ोस वाले भी मजे लेते कि हमलोगों को भी थोडा चखाओ भई. लेकिन जिसने पिकनिक में आलू-आटा-नगद या कोई और सामान न दिया हो या खाना बनाने, बर्तन धोने में योगदान न दिया हो उसको भोजन स्थल के 500 मीटर के दायरे में फटकने की भी इजाजत नहीं होती थी. 

पिकनिक ख़त्म होने के बाद कालिख से काला हुआ बर्तन लेकर घर आने पर गालियों और डंडे की भरपूर संभावना होती थी. उस बर्तन को चुपके से रसोई के गंदे बर्तनों के ढेर में सरका देना कोई हंसी-खेल का काम नहीं था. उसके लिए हाई लेवल की प्रतिभा और कंसेन्ट्रेशन चाहिए होती थी.

आज नए साल में ये सब बातें दिमाग में घूम रही थी. घर फोन किया तो पता चला कि भतीजे बच्चा पार्टी के साथ पिकनिक मनाने निकले हैं और घर पर अपना खाना बनाने को मना कर गए हैं. 🙂

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Dr. Satish Chandra Satyarthi

Dr. Satish Satyarthi is the Founder of CEO of LKI School of Korean Language. He is also the founder of many other renowned websites like TOPIK GUIDE and Annyeong India. He has been associated with many corporate companies, government organizations and universities as a Korean language and linguistics expert. You can connect with him on Facebook, Twitter or Google+

  • कहाँ कहाँ की यादें निकाल लाये आप सतीश बाबू!! नया साल और पिकनिक वाली बात तो बहुतों ने शेयर की होगी… लेकिन नया साल स्कूल का और किताबों पर जिल्द लगाना ( हमलोग जिल्द मढ़ना बोलते थे, याद कीजिये) किसी ने नहीं याद किया होगा.. ख़ुद मैंने भी कभी इसका ज़िक्र नहीं किया, जबकि यह बात मुझे बहुत पुरानी यादों में ले गई!!
    शुक्रिया, मुझे मेरे इस बचपन से मिलाने का.. और अंत में नया साल शुभ हो!!

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