हर चार-छह महीने में एक बार यह खबर आ जाती है कि किसी ठाकरे ने बिहारवालों को मुम्बई से भगाने की धमकी दी, यूपी के ऑटो-टैक्सीवालों को पीटा, भोजपुरी फिल्मों के पोस्टर फाड़ दिए; हिन्दी बोलने वालों को गाली दी वगैरह वगैरह. हर बार बिहार और दिल्ली के दो-चार नेता इसकी निंदा कर देते हैं, ठाकरे को पागल बता देते हैं और मामला खत्म. यह देखकर आश्चर्य होता है कि किसी भी पुलिस, क़ानून, अदालत ने इसके लिए राज ठाकरे पर कभी कोई कार्रवाई नहीं की. लगता है जैसे देश के किसी भाग के लोगों को उनकी सभ्यता, संस्कृति, अस्मिता को गाली देना भारतीय क़ानून की किसी धारा के अंदर अपराध नहीं माना जाता.
राज ठाकरे और बाल ठाकरे बेवक़ूफ़ तो नहीं हैं. न ही वो महाराष्ट्र के इतने बड़े शुभचिंतक और मराठी संस्कृति के रक्षक हैं. यह बात राजनीति को समझने वाला मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी जानता है कि यह सब एक गंदी राजनीति का हिस्सा है. ठाकरे परिवार को यह पता है कि उन्हें महाराष्ट्र से बाहर कुत्ता भी पूछने वाला नहीं है. उन्हें राजनीति महाराष्ट्र में करनी है. तो देश के दूसरे हिस्से के लोग ज्यादा से ज्यादा उन्हें गाली ही दे सकते हैं जिसके वे आदी हो चुके हैं. जो आम जनता उन्हें वोट देती है वह सरल है. वह महाराष्ट्र और मराठी संस्कृति के बारे में बड़ी-बड़ी जोश भरी बातें सुनकर खुश हो जाती है. उसे लगता है कि यही सचा मराठी नेता है. इसमें कुछ भी नया नहीं है. यह कार्ड तकरीबन सभी नेता अपने अपने राज्यों में खेलते हैं. पर ठाकरे इसे खेलने में जिस हद तक जा रहे हैं वह गंदगी की सीमा को पार करता है.
कई लोग यह तर्क देते हैं कि किसी क्षेत्र की नौकरियों और संसाधनों पर उस क्षेत्र के लोगों का पहला हक है. अगर इस थ्योरी को माना जाए तो पुणे वालों को मुम्बई जाकर काम करने का हक नहीं, मुम्बई वाले दिल्ली, बैंगलोर जाकर काम नहीं कर सकते, दिल्ली वाले नोयडा और गुडगाँव में नौकरी नहीं कर सकते. फिर हमें उस वक्त भी हल्ला नहीं मचाना चाहिए जब इसी थ्योरी के आधार पर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में काम कर रहे भारतीय नौजवानों को पीटा जाता है; उन भारतीयों को जिनमें मुम्बई, पंजाब और दिल्ली वाले भी उतनी ही संख्या में हैं जितने बिहार-यूपी वाले. फिर तो ब्रिटेन, कनाडा में रेस्टौरेंट में काम करने वाले, टैक्सी चलाने वाले भारतीयों को पीट कर खदेड़ देना चाहिए क्योंकि वहाँ के नेटिव लोग बेरोजगार हैं और उन नौकरियों को करने के इच्छुक हैं. पर तब तो हम रेसिज्म-रेसिज्म चिल्लाने लगते हैं. पर अपने देश में हो रहा खुला रेसिज्म हमें दिखाई नहीं देता. चाहे वह उत्तर-पूर्व वालों को लेकर हो, बिहारियों को लेकर या फिर दक्षिण भारतीयों को लेकर.
यह ग्लोबलाइजेशन और प्रतियोगिता का दौर है. आप अपने क्षेत्र, धर्म, जाति के आधार पर नौकरी का दावा नहीं आकर सकते. खासकर तब जब उतने ही पैसे में आपसे अधिक प्रतिभा वाला उस काम को करने के लिए इच्छुक है. दूसरी बात कि अगर ठाकरे या उनकी पार्टी को बिहारियों के मुम्बई में रहने या काम करने पर आपत्ति है या उनको लगता है कि महाराष्ट्र में आने वाले सभी लोगों को मराठी का कोर्स करके आना चाहिए तो उन्हें विधानसभा और संसद में यह मुद्दा उठाकर ऐसा क़ानून पास करवाना चाहिए. और अगर ऐसा कराने की उनकी औकात नहीं है तो फिर उनको हिटलरी फरमान जारी करने का कोई अधिकार नहीं है. देश का संविधान किसी भी नागरिक को कहीं भी जाकर रहने और काम करने का अधिकार देता है और महाराष्ट्र किसी ठाकरे परिवार की बपौती नहीं है जहाँ जाने से पहले उनसे अनुमति लेनी पड़े.
शिक्षा, कला, उद्योग, विज्ञान, आईटी और कृषि से लेकर राजनीति तक किसी भी क्षेत्र में यूपी और बिहार का योगदान दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र या किसी भी अन्य राज्य से कम नहीं है यह एक थोड़ा भी पढ़ा लिखा व्यक्ति जानता है. दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों के विकास में जितना योगदान वहाँ के लोगों का है उससे कम बिहार-यूपी से आये कामगारों, तकनीशियनों, छात्रों, अफसरों और व्यापारियों का नहीं है. हमें यह समझना होगा कि राज ठाकरे जैसे नेता अपनी गंदी और घटिया राजनीति के लिए देश में कितनी बड़ी दरार पैदा कर रहे हैं. ऐसे लोग राष्ट्रीय एकता के लिए ख़तरा हैं. जब अपने ही देश में किसी खास क्षेत्र का होने की वजह से किसी का अपमान किया जाता है, पीटा जाता है, भगाया जाता है और देश का क़ानून और देश की सरकार उसे सुरक्षा नहीं दे पाती तो देश के एक कोने में कहीं न कहीं एक दरार पड़ती है; देश टूटता है.
anupkidak says
सही लिखा है। राहत इंदौरी का शेर कोई सुनाये उनको:
सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में,
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है।
लेकिन सुनाये कौन? मतलब समझाये कौन?
Satish says
वही समस्या है.. सुनाये कौन?
mantu kumar says
एगो बात बताईए…कुत्ता का दूम आज तक कभी सीधा हुआ है,,त इ कउना नश्ल का है कि इसका सीधा हो जाएगा |
उ,इ वाला पोस्ट पढ़ लेगा तो उसको अपना औकात पता चल जायेगा | खैर छोडिए…उसको कहना था,सो कह दिया,आपको लिखना था जो आपने लिख दिया…हम भी पढ़ के टिपिया लिए…,,,उसको आदत हो गया है,,हर एक-दू महीना में फोफीयाने का,,गहुआना सांप लेखा,जो गाँव सब मे दिखा-दिखा के कुछ माँगने आते हैं..
Satish says
ये भी सहिये बात है… कुक्कुर के दुम ही हैं ये…