Category: टेक्नोलॉजी

  • फेसबुक पर इंटेलेक्चुअल कैसे दिखें

    फेसबुक पर इंटेलेक्चुअल कैसे दिखें

    you-can-bullshitक्या आप इस बात से परेशान हैं कि आप इत्ते बड़े इंटेलेक्चुअल हैं लेकिन आपके फेसबुक फ्रेंड्स आपको चूतिया बेवक़ूफ़ समझते हैं? क्या फेसबुक पर चौबीस घंटे अलग अलग सब्जेक्ट्स पर बकैती करने स्टेटस लिखने के बावजूद लोग आपको एक बुद्धिजीवी के रूप में आदर-सम्मान नहीं देते? क्या अपनी फेसबुक वाल पर लाइक्स और कमेंट्स के इंतज़ार में आपकी आँखें दुखने लगती हैं लेकिन कोई भूले-भटके भी उधर नहीं आता? क्या फेसबुक पर आपको सुन्दर कन्याओं के फ्रेंड रिक्वेtiस्ट नहीं आते और आपके फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने पर कन्याएं आपको ब्लॉक कर देती हैं? क्या आपके द्वारा शेयर की गयी जानकारी से भरी तस्वीरों और साईं बाबा के पोस्टर्स को लोग रिपोर्ट कर देते हैं. क्या लोग आपके द्वारा प्रेमपूर्वक किये गए टैग को तुरंत रिमूव कर आपको प्राइवेट मैसेज से गाली सन्देश भेजते हैं? अगर इन सभी प्रश्नों का जवाब हाँ है तो इसका मतलब है कि आपके व्यक्तित्व में इंटेलेक्चुअल तत्व की भारी कमी है अर्थात आप इंटेलेक्चुअल कुपोषण के शिकार हैं आई मीन आपका फेसबुक प्रोफाइल इंटेलेक्चुअल कुपोषण का शिकार है. और आजतक मेडिकल सायंस फेसबुक के कर्मठ लोगों के इंटेलेक्चुअल कुपोषण को दूर करने का तरीका नहीं ढूंढ पाया है. लेकिन अगर आप इस पेज पर आ चुके हैं (जो कि आप आ ही चुके हैं अगर आप ये पढ़ रहे हैं) तो आप बिलकुल सही जगह पर हैं. इस ब्लॉग पर फेसबुक पीड़ितों की तसल्लीबख्श मरम्मत की जाती है. तो आज इस पोस्ट में मैं आपको बताऊंगा कि फेसबुक पर इंटेलेक्चुअल अर्थात बुद्धिजीवी कैसे बनें दिखें. दुसरे शब्दों में कहें तो फेसबुक पर अपना भोकाल कैसे बांधें.

    अब अगर आप यह पूछ सकते हैं कि भाई बुद्धिजीवी काहे को दिखें? बुद्धिजीवी दिखने की क्या जरूरत है? तो मेरा उत्तर यह होगा कि वैसे तो ऊपर के सारे प्रश्नों का उत्तर हाँ में देने के बाद आपको चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए यह प्रश्न पूछना नहीं चाहिए, पर आपने पूछ ही लिया है तो मैं बताता हूँ. पहली बात, आपने देखा होगा कि फेसबुक पर कुछ लोग बड़े पोपुलर होते हैं- तीन-चार हजार फ्रेंड्स, सैंकड़ों फौलोअर्स, हर सड़े-गले पोस्ट पर दो-चार सौ लाइक्स और कमेंट्स. हर फोटो पर सौ-दो सौ बालिकाओं के आय-हाय-उह-आह. मुझे पता है कि आपका खून खौल जाता है जब आप देखते हैं कि उसके ठीक नीचे आपकी पोस्ट पर तीन लाइक्स और एक कमेन्ट है वो भी आपके चचेरे भाई का. तो ऐसा नहीं है कि ये सारे पोपुलर लोग कोइ बड़े विद्वान या इंटेलेक्चुअल हैं. लेकिन इन सबमें एक बात कॉमन है कि ये इंटेलेक्चुअल दिखते हैं  और यही इनका यूएसपी अर्थात अंडरवीयर स्पेशल प्वायंट यूनिक सेलिंग प्वायंट है. अब इनके लेवल तक पहुँचने के लिए आपके पास दो रास्ते हैं – १) इंटेलेक्चुअल बनें या २) इंटेलेक्चुअल दिखें.

    पहला रास्ता अर्थात इंटेलेक्चुअल बनने का रास्ता बड़ा कठिन है और अगर आप मूर्ख हैं तो आपको इसी रास्ते को चुनना चाहिए. इसके लिए आपको बैल की तरह सैंकड़ों किताबें पढनी होंगी. उल्लू की तरह रात-रात भर जाग कर चीजों पर चिंतन मनन करना होगा और उसके बाद भी सफलता की गारंटी नहीं है. इसलिए अधिकतर समझदार लोग और विद्वतजन दूसरा रास्ता चुनते हैं, अर्थात इंटेलेक्चुअल दिखने का रास्ता. यह रास्ता परम सरल और सुखभरा है. इस रास्ते पर चलने से पहले का जरूरी स्टेप यह है कि आप यह मान लें कि आप दुनिया में कोइ माई का लाल आपसे ज्यादा बड़ा इंटेलेक्चुअल नहीं है. ऐसा मान लेने के बाद  आपका आधा कुपोषण ठीक उसी तरह दूर हो जाता है जैसे मनरेगा के आने से देश से गरीबी दूर हो गयी. इस स्टेप के बाद आप फेसबुक पर अपनी बुद्धिजीवी छवि को मजबूत करने के लिए कुछ वैसे ही कड़े कदम उठाएं जैसे घुसपैठ के बाद पाकिस्तान पर मनमोहन सिंह उठाते हैं. ये कड़े कदम निम्नलिखित हैं:-

    1. ब्लैक एंड व्हाईट प्रोफाइल फोटो :- वो जो प्रोफाइल फोटो में आपने उन्नीस सौ सतहत्तर की पासपोर्ट साइज फोटो लगा रखी है पहले उसे हटा दें. हो सके तो उस मनहूस फोटो को कम्प्यूटर से परमानेंटली डिलीट मार दें. आपकी एक चौथाई कृपा तो वहीं रुकी हुई है.  ओके. अब किसी कैमराधारी मित्र को चाय-समोसा खिलाकर एक ब्लैक एंड व्हाईट फोटो निकलवाएँ. उससे बोलें कि फोटो जितनी खराब आ सके उतना अच्छा. एक्सपोजर और लाइटिंग जान बुझकर गड़बड़ करने को बोलें और कहें कि कैमरे को आड़ा तिरछा करके फोटो ले. वो तिरछा न करे तो आप खुद ही तिरछे हो जाएं.

    2. भोकाल हुलिया :- फोटो खिंचवाने से दो दिन पहले से खाना खाना और नहाना-धोना छोड़ दें. कुल मिलाकर आप फोटो से उन्नीसवीं सदी के अकाल में टीबी से पीड़ित किसान दिखने चाहियें. इससे फोटो में भयंकर इंटेलेक्चुअल लुक आएगा. नंबर दो, फोटो खिंचवाने के तीन महीने पहले से शेव करना छोड़ दें. अरस्तू और सुकरात से लेकर टैगोर तक आजतक दुनिया में जितने भी बुद्धिजीवी हुए हैं उनमें से किसी को भी बिना दाढ़ी के देखा है? नहीं न? तो फिर आप क्यों चूतिया टाइप से क्लीन शेव में बाबा बने फिर रहे हैं? नंबर तीन, चश्मा पहनिए. हो सके तो काली मोटी फ्रेम वाला.

    3. कवि और शायर बनें :- हर बात को कविता और शायरी में कहें. इससे बात का वजन बढ़ता है. मूर्खों की तरह कविता की क्वालिटी पर ध्यान न दें. एक कविता लिखने में दस मिनट से ज्यादा लग जाए तो धिक्कार है आप पर. एक्चुअली आपको कविता लिखनी ही नहीं है. पहले आपको जो बात लिखनी हो वो लिख लें फिर उसी में बस बीच-बीच में कौमा और एंटर बटन मारते चलें. बीच में शब्दों को ऊपर नीचे भी कर दे सकते हैं. बस रेडीमेड कविता तैयार. उदाहरण के लिए आपको लिखना है कि “देश का गरीब परेशान है भूखमरी और गरीबी से और सरकार घटा रही है स्मार्टफोन के दाम. इस देश को गड्ढे में जाने से कोई नहीं रोक सकता.” तो इसे ऐसे लिखें:

    देश का गरीब

    परेशान है,

    भूखमरी और गरीबी से,

    और सरकार घटा रही है

    स्मार्टफोन के दाम.

    कोई नहीं रोक सकता

     इस देश को,

    गड्ढे में जाने से.

                                                            :- [कवि – फलाना जी ढिमकाना]

    ऐसे कविता और शायरी में लिखने से आपकी बुद्धिजीवी इमेज तो बनेगी ही, हो सकता है दो चार साल में आप साहित्य के दस-बीस सम्मान-वम्मान भी बटोर लायें. साहित्य के सेमिनारों और कॉन्फ्रेस वगैरह का मुफ्त निमंत्रण मिलेगा सो अलग. इन सेमिनारों में जलपान और भोजन अच्छा मिलता है. मने बता रहे हैं.

    4. भौकाल फोटोग्राफर :- यह साइंटिफिकली प्रूव्ड है कि अगर कोई कुरता-जींस और चप्पल में भारी-भरकम डीएसएलआर कैमरा, लेंस और ट्राईपॉड लिए घूम रहा है तो वह और कुछ हो न हो इंटेलेक्चुअल तो जरूर ही होगा. भले ही आपको कैमरा में फोटो खींचने वाला एक बटन दबाने के अलावा और कुछ न आता हो लेकिन रखें डीएसएलआर कैमरा ही. और फोटो ज्यादातर ब्लैक एंड व्हाईट और सीपिया टोन में खींचें. फोटो हमेशा रैंडम चीजों की खींचें. टूटी-चप्पल, जंग लगा खम्भा, कूड़े पर सोती मरियल कुतिया, फूल के बगल में गिरा गोबर आदि. गरीब और भिखारी सबसे अच्छे फोटो सब्जेक्ट्स होते हैं. इनकी बड़ी डिमांड है इंटेलेक्चुअल्स के बीच. इसलिए गरीबी की फोटो बराबर खींचें और हाँ फोटो पर ‘फलाना फोटोग्राफी’ का वाटरमार्क लगाना न भूलें. क्या पता कल को टाइम मैगजीन वाले बिना आपसे पूछे कवर पर छाप दें. इनका कोइ भरोसा नहीं.  अपनी फोटोग्राफी का एक फेसबुक पेज और एक ब्लॉग भी बनाएं और अपने सारे फ्रेंड्स को उसे ज्वायन करने का इनविटेशन हफ्ते में दो बार जरूर भेजें.

    5. नो सरल एंड स्पष्ट बात:- सरल और स्पष्ट तरीके से बोलना या लिखना पूअर कॉमन पीपल की निशानी है. बुद्धिजीवी को अपनी बात ऐसे गूढ़ और जटिल तरीके से लिखनी चाहिए कि कोई गलती से भी समझ न पाए. इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कोइ बात लिखने के बाद उसमें आये सरल शब्दों को डिक्शनरी देखकर गूढ़ शब्दों से रिप्लेस करें और खुद पढ़कर देख लें कि बात के समझ आने की कोइ संभावना तो नहीं बची. उसके बात पोस्ट करें. दूसरे की पोस्ट पर कमेन्ट करते समय भी ऐसी ही प्रक्रिया अपनाएं. लोग आपकी बात एक-दो बार नहीं समझेंगे तो आपको मूर्ख समझेंगे; हमेशा ही नहीं समझ पायेंगे तो खुद को मूर्ख समझने लगेंगे.

    6. विवाद पैदा करें :- यह सबसे महत्वपूर्ण है. इस बात का ख़ास ध्यान रखें कि आपकी एक भी बात ऐसी न हो जिसपर विवाद या बहस न हो. सब लोग किसी बात को गलत कह रहे हों तो आप लिखें कि इससे सही बात हो ही नहीं सकती. सबलोग एक व्यक्ति या आन्दोलन को सही बता रहे हों तो आप लिखें कि ऐसा चोर व्यक्ति आपने आजतक देखा ही नहीं और ये आदोलन तो सबसे बड़ा ढोंग है. ऐसी बातें लिखें जो परले दर्जे की बेवकूफी और बकैती हो और जिसे देखकर अच्छे-भले आदमी का ब्लड-प्रेशर बढ़ जाए और उसका मन करने लगे कि आपको सौ गाली दे और गिन कर दस जूते मारे. बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा? बहस जीतने के अचूक उपाय मैंने ऑलरेडी यहाँ बता रखे हैं.

    7. वामपंथी-कम-नास्तिक-कम-नारीवादी बनें : – ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी वाले कह रहे हैं कि अगले एडिशन में वामपंथी, नास्तिक और नारीवादी के अर्थ में बुद्धिजीवी जोड़ दिया जाएगा क्योंकि यह बात वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुकी है. कोई व्यक्ति यह बोल दे कि भगवान् और धर्म ही दुनिया की सारी बुराइयों की जड़ है, या ये कि वो मार्क्स के समाजवादी सिद्धांतों का अनुयायी है या ये कि वो मानता है कि दुनिया के सारे मर्द नीच और दुष्ट हैं तो फिर उसके बाद उसको खुद को बुद्धिजीवी साबित करने के लिए कुछ और कहने की जरूरत नहीं रह जाती. इसलिए इस रामवाण को आप भी जरूर आजमाकर देखें.

  • फेसबुक पर बहस कैसे जीतें

    फेसबुक पर बहस कैसे जीतें

    How to Win an Argument on Facebook

    ज्ञानी और बुद्धिजीवी होना दो अलग अलग चीजें हैं. ज्ञानी तो कोई भी हो सकता है पर बुद्धिजीवी होना सबके बस की बात नहीं. इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है – फेसबुक पर, ट्विटर पर. ब्लॉग्स की जमीन से जुड़ना पड़ता है. समाज, राजनीति, दर्शन, धर्म जैसे गूढ़ विषयों पर सतत ज्ञान ठेलना पड़ता है. क्योंकि विश्व को बदलने का पवित्र काम बुद्धिजीवी पूरी तरह अपने जिम्मे ले लेता है. अब मुझे अच्छी तरह पता है कि आप ज्ञानी और बुद्धिजीवी दोनों हैं. खासकर फेसबुक की अज्ञानी जनता को शिक्षित करना आपने अपने जीवन का परम उद्देश्य मान लिया है. और इसके लिए आप सदैव जो थोडा-बहुत ज्ञान आपके पास है वो फेसबुक पर ठेलते रहते हैं. आप लोगों को सदैव अपनी बातों पर बहस के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं. पर बहस से आपका मतलब हमेशा ‘आपके पक्ष में बहस’ होता है. लेकिन कई मूर्ख इस सरल सी बात को नहीं समझ पाते और आपकी बातों को घटिया और कूड़ा बताने लगते हैं. बातें घटिया और कूड़ा हैं ये आपको भी पता है लेकिन इसका ये मतलब थोड़े है कि कोई सरेआम बोल देगा. बुद्धिजीवी की अपनी प्रतिष्ठा है भई. इस पोस्ट का उद्देश्य यही है कि ऐसे नीचों, मूर्खों और दुष्टों को कैसे बहस में हराकर सबक सिखाया जाए. नीचे लिखे कुछ बिन्दुओं का ध्यान रखके आप आसानी से फेसबुक के ‘चर्चा-चक्रवर्ती’ बन सकते हैं.

    १)      कुछ भी कूड़ा टाइप गलत-सलत लिखकर बहस शुरू करने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि आसपास भक्तों और चमचों का एक पूरा बैकअप सपोर्ट हो जो आपके लिखे कूड़े को भी अरस्तू और सुकरात के लेवल का बताए और आपकी बात को गलत कहने वाले पर दाना पानी लेकर पिल जाए. ऐसी प्रोडक्टिव टीम के साथ होने पर आप आधी बहस तो शुरू होने से पहले ही जीत जाते हैं.

    २)      आपकी मजबूत टीम को देखकर कमजोर दिलवाले विरोधी तो बहस में घुसने का साहस ही नहीं करेंगे और चुपचाप या तो निकल लेंगे या अन्य विरोधियों के कमेंट्स को चुपके-चुपके लाइक करेंगे. लेकिन अगर कोई दुस्साहसी बहस शुरू करने की हिम्मत कर भी लेता है तो घबराएं नहीं. मैं आपको कुछ ऐसे अचूक नुस्खे बताऊंगा जिससे सामने वाला औंधे मुंह गिरने के बाद पानी भी नहीं मांगेगा.

    ३)      अगर विरोधी कोई प्रभावशाली सम्पादक, चैनल वाला, सरकारी अफसर या कोई ऐसा व्यक्ति हो जिससे भविष्य में आपको काम पड़ सकता हो तो “आप भी ठीक कह रहे हैं.. आप तो ज्ञानी हैं,  हें हें हें.. “ टाइप के कमेन्ट लिखकर बहस को वहीं ख़त्म करें. सामने वाले की तारीफ़ कर देने से सामने वाला बहस या तो शुरू ही नहीं करेगा या करेगा तो आक्रामक नहीं रहेगा.

    ४)      अब बात तब की, जब विरोधी ऐसा हो जिससे आपको निकट भविष्य में कोई काम नहीं पड़ने वाला. इस स्थिति में शुरू की पंक्ति का आक्रमण तो अपने भक्तों को ही संभालने दें. छोटे मोटे विरोधियों को तो वो ही अपने उल-जुलूल गंद टाइप कमेंट्स से पस्त कर देंगे. अगर भक्त जन गाली-गलौज पर उतर जाएं तो बीच-बीच में आकर इसकी हल्की सी निंदा कर दें. पर निंदा मीठी सी डांट टाइप होनी चाहिए जिससे कि भक्तजन बुरा न मान जाएं और अपने काम में लगे रहें.

    ५)      जब आपको लग जाये कि विरोधी कुछ ज्यादा ही दुस्साहसी है और आपके भक्त अब उसके तर्कों के आगे नहीं टिक पा रहे हैं तो आप बहस में प्रवेश करें पर इस मुद्रा में कि आप सामने वाले के निम्न स्तर के तर्कों का उत्तर देकर उसपर कृपा कर रहे हैं. आप नीचे दिए गए (कु)तर्कों से कड़े से कड़े बहसबाज को चारों खाने चित कर सकते हैं.

    ६)      “आप कमेन्ट करने से पहले मेरी बात को फिर से ठीक से पढ़ें” इस तर्क के द्वारा बिना कहे आप यह सिद्ध कर देंगे कि सामने वाला या तो मूर्ख है और बात को ठीक से समझे बिना तर्क कर रहा है या फिर उसमें आपकी उच्च कोटि की बात को समझने की उसके पास काबिलियत ही नहीं है.

    ७)      “आपको इस विषय के बारे में कुछ पता ही नहीं है. आप पहले फलाना और ढिमकाना फिलोस्फर्स को ठीक से पढ़ें, इतिहास को समझें फिर बहस करें.” ऐसा आप इस कॉन्फिडेंस के साथ कहें कि जैसे आपने उन सारे दार्शनिकों के दर्शन और पूरे इतिहास को घोंट रखा हो. इस तर्क के आगे अच्छे-अच्छे विद्वान बहसबाज का आत्मविश्वास चुक जाएगा. आप दार्शनिकों का नाम ढूँढने के लिए गूगल सर्च और विकिपीडिया की मदद ले सकते हैं. संभव हो तो झटपट इंटरनेट से ढूंढ कर बड़े-बड़े क्लिष्ट पेजों के दस-बीस लिंक दे दें और बोलें कि इनको पढ़के आयें फिर आप ठीक से इस मुद्दे पर बहस कर पाएंगे. लिंक चुनते वक्त इस बात का ध्यान रखें कि सामग्री इतनी जटिल और बोरिंग हो कि उसका लेखक खुद भी उसे दुबारा पढने की हिम्मत न कर पाए.

    ८)      “लगता है आपने भारतीय संविधान/ वेद/ कुरआन/ बाइबिल/ अलाना-फलाना ग्रन्थ का ठीक से अध्ययन नहीं किया.” यह तर्क भी अचूक है. क्योंकि आपको पता है कि आज तक देश में किसी ने भी इन सारे ग्रंथों का ‘ठीक से’ अध्ययन नहीं किया. आपने तो एक बार इन्हें पलट के भी नहीं देखा. लेकिन इस तर्क से आपकी ऐसी इमेज बनेगी जैसे आपने इन ग्रंथों पर शोध कर रखा हो. इससे आपका वर्तमान विरोधी तो तिलमिला ही जायेगा साथ में भविष्य में भी लोग आपसे बहस करने से पहले दस बार सोचेंगे.

    ९)      “आप पूंजीवादी, साम्प्रदायिक, ब्राह्मणवादी,  और मनुवादी हैं. आप गरीब जनता के दुश्मन हैं, देशद्रोही हैं, गद्दार हैं’ इस तरह के तर्क के बाद अधिकाँश समझदार विरोधी मैदान छोड़ कर भाग खड़े होंगे. ऐसा आरोप लगाने से पहले व्यक्ति का बैकग्राउंड वगैरह जानने में समय बिलकुल नष्ट न करें. ऐसा तर्क करने से यह बात स्वयंसिद्ध हो जायेगी कि आप पूंजीवादी, साम्प्रदायिक, ब्राह्मणवादी और मनुवादी नहीं हैं और गरीब जनता के सच्चे हितैषी हैं. आप विरोधी को यह भी कह सकते हैं कि “आप सामाजिक सरोकारों से नहीं जुड़े हैं, आप सिर्फ एसी कमरे में बैठकर बहस करने वाले हैं वगैरह वगैरह.” इससे आपके जमीन से जुड़े होने का प्रमाण मिलेगा.

    १०)   आपके इन सारे जाबड़ तर्कों के बाद भी अगर सामने वाला अपने तर्कों और तथ्यों के साथ डटा   हुआ है तो आप अंतिम अस्त्र अर्थात सरेआम गाली-गलौज और लंगटई पर उतर सकते हैं. मुझे पता है कि आप इस हथियार का इस्तेमाल बहस के शुरू में ही करना चाहते थे पर अब तक धैर्य धारण कर आपने अपने संस्कारों का परिचय दिया. अब आप विरोधी के रंग-रूप, धर्म, जाति, खानदान आदि पर जोरदार प्रहार करें. उसके परिवार की स्त्रियों को भी बहस में घसीट कर अपनी गंवई या परिष्कृत गालियों से उनका उचित सम्मान कर सकते हैं. यह अपने लंठ भक्तों को भी सांड की तरह खुला छोड़ देने का भी उचित समय है. उम्मीद है इस चरण के बाद बहस में आप विजेता की तरह सर ऊँचा किये खड़े होंगे.

    बोनस टिप्स:- अगर कोई विरोधी ज्यादा ही पढ़ा लिखा और समझदार लग रहा हो और बड़े ही सटीक शब्दों में अपनी बात रख रहा हो और उसके साथ चाहकर भी आप लंगटई पर न उतर पा रहे हों तो आप दो अचूक अस्त्रों का इस्तेमाल करें – १. चुप्पी – बाकी सारे उल-जुलूल कमेंट्स का जवाब देते चलें पर उसके तर्कों को लगातार इग्नोर करते रहें. इससे वो अंत में अपने आप थककर बहस छोड़ कर निकल जाएगा और बाकी लोगों को लगेगा कि शायद उसके तर्क आपके विद्वता के स्तर से काफी नीचे थे इसलिए आपने उनका उत्तर देना वाजिब नहीं समझा. २. ब्लॉक – ऐसे समझदार लोगों को अपने आसपास रखना समझदारी का काम नहीं है. ये कभी भी सरे बाजार आपकी धोती उतार सकते हैं. इसलिए इनको तुरंत प्रभाव से ब्लॉक कर दें. और इनके स्थान पर दो चार मूर्ख भक्तों की फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर लें.

    *महत्वपूर्ण नोट: बहस के दौरान कभी भी अपनी बात को सरल शब्दों और वाक्यों में न रखें. इससे आपकी बेवकूफी पकड़ी जा सकती है. हमेशा क्लिष्ट शब्दों और दो चार लाइन के लम्बे वाक्यों का इस्तेमाल करें. भार्गव की डिक्शनरी, हिन्दी साहित्य के क्लिष्ट शब्दों का कलेक्शन और दस-बीस अंग्रेजी दार्शनिकों के नाम की लिस्ट को हैंडी रखें. बीच-बीच में किसी फिलौस्फर की अंग्रेजी में कही बात को इंटरनेट से कॉपी पेस्ट मार दें. ध्यान दें कि मूल लेखक का नाम हटाकर यह लिखना न भूलें कि यह विचार अभी-अभी आपके दिमाग में आया. शायरी और कविता की कुछ किताबें भी अपनी टेबल पर रखें. खासकर प्रगतिशील टाइप कवि और शायरों के किताबें ज्यादा कारगर होती हैं.

    और सबसे महत्वपूर्ण बात: इन टिप्स को अपने विरोधियों के साथ बिलकुल शेयर न करें.

  • आइपेज का एक डॉलर वेब होस्टिंग ऑफर

    आइपेज का एक डॉलर वेब होस्टिंग ऑफर

    मेरा ये ब्लॉग और बाकी सभी ब्लॉग और वेबसाइटें iPage कंपनी के सर्वर्स पर होस्टेड हैं. ईमानदारी से कहूं तो आइपेज वेब होस्ट को चुनने का सबसे बड़ा कारण इसका सबसे अच्छा होना नहीं बल्कि सबसे सस्ता होना था. जब मैं वेबहोस्ट के लिए रिसर्च कर रहा था तो मैंने देखा कि ऐसे कुछ और वेब होस्ट हैं जिनके बारे में यूजर्स का रिव्यू आइपेज से काफी अच्छा है. लेकिन कीमत के हिसाब से आइपेज सबसे सस्ता था और एक नामी ब्रांड भी था. इसीलिये मैंने इसे चुना.

    एक साल से ज्यादा हो गए लेकिन आज तक कोई ऐसी परेशानी नहीं आई. कभी कुछ मदद की जरुरत हुई तो 24 की लाइव कस्टमर केयर चैट वाली सुविधा हमेशा काम आई. आज साईट का बैकअप लेने के लिए काफी दिनों बाद आइपेज की वेबसाईट पर गया तो देखा कि बड़ा भारी डिस्काउंट ऑफर कर रहे हैं आजकल. होस्टिंग की कीमत है सिर्फ एक डॉलर प्रति माह यानि कि साल के 12 डॉलर. और इस पैकेज में आपको एक डोमेन भी फ्री मिलता है जो कि आप अलग खरीदेंगे तो वही 10 डॉलर का पड़ेगा. उसके बाद एक और अच्छी बात यह है कि आइपेज एक ही पैकेज में अनलिमिटेड वेबसाईट होस्ट की सुविधा देता है. साथ ही अनलिमिटेड बैंडविड्थ भी. यानि कि कल को आपकी साईट बहुत पोपुलर हो जाए और लाखों विजिटर आने लगें तो भी कंपनी आपको कुछ एक्स्ट्रा चार्ज नहीं करेगी. साथ में कुछ और छोटी-मोटी चीजें मुफ्त में देते हैं जो आप खुद जाकर देख लीजिये.

    मुझे तो यह ठीक-ठाक सौदा लगा. आप भी अगर वेब होस्टिंग ढूंढ रहे हैं और यह ठीक लगे तो खरीद सकते हैं. आइपेज की वेबसाईट पर बाकी जानकारी उपलब्ध है.

    Ipage 1 dollar web hosting offer

  • मेरा बनाया पहला एंड्राइड ऐप

    मेरा बनाया पहला एंड्राइड ऐप

     

    मेरा पहला एंड्राइड ऐप
    मेरा पहला एंड्राइड ऐप

    तकनीकी कामों में मेरा शुरू से ही मन लगता है. बचपन में रेडियो पर प्रयोग करता रहता था. फिर जब शुरू-शुरू में डेस्कटॉप कम्प्यूटर लिया था तो सीपीयू का ढक्कन हमेशा खुला ही रहता था. फिर प्रयोग कर-कर के सौफ्टवेयर की छोटी-मोटी गड़बड़ियाँ भी ठीक करना भी सीखा. इस चक्कर में कई बार नुकसान भी हुआ, चक्कर में भी पड़ा पर सीखने को बहुत कुछ मिला. ब्लौगिंग में घुसने के बाद शुरू में तो फ्री ब्लॉगर और वर्डप्रेस प्लेटफार्म पर ब्लुग बनाया पर धीरे-धीरे जिज्ञासा बड़ी तो अपना डोमेन भी खरीदा, होस्टिंग भी ली, कई वेबसाईट भी बनाई. इधर काफी दिनों से मोबाइल एप्लीकेशंस की तरफ दिमाग जा रहा था. मन हो रहा था कि अपनी टॉपिक गाइड  वेबसाईट के लिए एक सिम्पल सा ऐप बनाऊं जिससे कि मोबाइल पर भी लोग आराम से साईट का सारा कंटेंट देख पाएं. वैसे देख तो मोबाइल ब्राउजर पर भी सकते हैं पर ऐप के द्वारा कई अलग तरह के ऑप्शंस भी खुल जाते हैं जिससे आप रीडर्स को बेहतर तरीके से सेवाएं दे सकते हैं.

    लेकिन कोडिंग और प्रोग्रामिंग का काम मुझे शुरू से ही बोरिंग लगता है. हालांकि सीखना चाहता हूँ, कई बार शुरू भी किया लेकिन हमेशा बीच में मन ऊब जाता है. एंड्राइड एक ओपन सोर्स प्लेटफ़ॉर्म है और गूगल ने डेवलपर्स के लिए मुफ्त का बेहतरीन सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट किट जारी किया हुआ है. ऐप बनाने के लिए सारी गाइडलाइन भी विस्तार से दे रखी है. लेकिन बेसिक कोडिंग तो आनी ही चाहिए. एंड्राइड के एप्लीकेशंस जावा लैंगुएज में बनते हैं. हालांकि जावा पुराणी प्रोग्रामिंग लैंगुएजेज की तुलना में काफी आसान है लेकिन फिर भी मैं नहीं सीख पाया.

    लेकिन आजकल जिन्हें कोडिंग नहींआती उनके लिए भी काफी सारे थर्ड पार्टी टूल्स उपलब्ध हैं.  हालांकि इनके लिए आपको या तो पैसे देकर मेम्बरशिप लेनी पड़ेगी या फिर जो मुफ्त वाले हैं उनमें ऐप बनाने के लिए थोडा दिमाग लगाना होगा और मुफ्त टूल्स से ऐप भी अच्छा नहीं बनता. लेकिन मैं इस स्टेज पर ज्यादा पैसे इन्वेस्ट करने के लिए तैयार नहीं था. इसलिए फ्री वाले टूल्स की मदद से ही ये छोटा सा ऐप बनाया.

    ऐप बनाने के बाद अब उसे गूगल के प्ले स्टोर पर अपलोड और पब्लिश करना जरूरी था जिससे कि लोग उसे वहां से डाउनलोड और इंस्टाल कर पायें. गूगल प्ले स्टोर में एक डेवलपर के रूप में ज्वायन करने के लिए 25 डॉलर देने पड़ते हैं. हालांकि मुझे यह भी भारी लग रहा था क्योंकि मैं सिर्फ एक्सपेरिमेंट कर रहा था. मुझे पता था कि ये ऐप बिलकुल साधारण है और कोइ पसंद भी करेगा या नहीं इसकी गारंटी नहीं है. लेकिन फिर लगा कि पच्चीस डॉलर देने के बाद गूगल डेवलपर कोन्सोल की परमानेंट मेम्बरशिप मिल जायेगी. अन्दर कैसे और क्या कम होता है कुछ पता तो चलेगा. और क्या पाटा आगे कुछ साल बाद मैं कोइ अच्छा ऐप बनाकर पब्लिश करना चाहूँ. उस समय ज्वायन करने की फीस और ज्यादा ही होगी.

    गूगल डेवलपर कोन्सोल डैशबोर्ड
    गूगल डेवलपर कोन्सोल डैशबोर्ड

    तो इस तरह सोचने विचारने के बाद पच्चीस डॉलर ढीले किये और गूगल पर एंड्राइड डेवलपर अकाउंट बना लिया. ऐप अपलोड करके बेसिक जानकारी वगैरह भरी और पब्लिश कर दिया. गूगल में यह अच्छी बात है कि यह ऐपल ज्यादा जांच-परख और दादागिरी नहीं करता और कोइ भी ऐप पब्लिश कर देता है बशर्ते कि वह मिनिमम रिक्वायरमेंट को पूरा करता हो. करीब दो-तीन घंटे बाद मेरा ऐप प्ले स्टोर पर लाइव हो गया था.

    टॉपिक गाइड ऐप प्ले स्टोर पर
    टॉपिक गाइड ऐप प्ले स्टोर पर

    पब्लिश करने को तो कर दिया लेकिन उसके बाद कुछ यूजर्स की शिकायत आने लगी कि पेज का कलर ख़राब है, पढ़ा नहीं जा रहा, ये लिंक क्लिक नहीं हो रहा वगैरह वगैरह. तो मैंने कलर वगैरह ठीक-ठाक करके सोचा कि अब नया वर्जन अपलोड कर देता हूँ. लेकिन तब पता चला कि मामला इतना आसान नहीं है जितना लग रहा था. जब मैंने गूगल पर ऐप का नया वर्जन अपलोड किया तो एरर आया कि इस फ़ाइल के अन्दर वर्जन नंबर और कोड वगैरह पहले वाला ही है वो आपको बदलना पड़ेगा. मतलब ऐप का पहला वर्जन ‘टॉपिक गाइड 2.0’ था तो नया वर्जन 2.1 या ज्यादा होना चाहिए. अब इसके लिए ऐप की फ़ाइल को दिकम्पाइल करके उसकी जावा कोडिंग में फेरबदल करना पड़ता. और फिर थर्ड पार्टी टूल्स से आप ऐप तो फ्री में बना सकते हैं लेकिन वो आपको सोर्स कोड नहीं देते. ये अच्छा ख़ासा लोचा था. फिर जैसे तैसे जुगाड़ लगाके दुनिया भर के सौफ्टवेयर डाउनलोड किये. कई सारे ट्यूटोरियल्स देखे फिर प्रयोग कर-करके अंत में 30 घंटे बाद सफलता मिली और अपना लल्लू ऐप अपडेट हुआ प्ले स्टोर पर.
    अब ये पूरा काम किसी प्रोफेशनल प्रोग्रामर के लिए एक घंटे का भी नहीं था जिसमें मुझे दो दिन लगे. मैं कुछ पैसे देकर किसी से ये ऐप बनवा सकता था या किसी से दो-चार बार रिक्वेस्ट करता तो शायद फ्री में भी बन जाता पर फिर सीखने का रोमांच नहीं मिलता.अब इस ऐप को लगातार अपडेट करने में और कुछ नए ऐप डेवलप करने में हो सकता है कि ठीक-ठाक ही सीख जाऊं. 🙂

  • एडसेंस से पहली इनकम

    एडसेंस से पहली इनकम

    पहली बार इंटरनेट पर टाइम खोटा करने के लिए किसी ने पैसे दिए. रकम ज्यादा बड़ी नहीं थी पर बहुत खुशी मिली. यह पेमेंट मेरे अंग्रेजी और कोरियन के ब्लॉग टॉपिक गाइड पर गूगल के विज्ञापनों के लिए आई थी. यह ब्लॉग टॉफेल टाइप के कोरियन लैंगुएज प्रोफिशिएंसी टेस्ट (TOPIK) के बारे में है. (more…)

  • फेसबुक पर पाए जाने वाले 20 तरह के प्राणी – पार्ट 2

    फेसबुक पर पाए जाने वाले 20 तरह के प्राणी – पार्ट 2

     

    types of facebook users

    पहले पार्ट के लिए यहाँ जाएँ:- फेसबुक पर पाए जाने वाले 20 तरह के प्राणी

    11. द बाबा-   इस कैटेगरी में पत्रकार, लेखक, प्रोफ़ेसर, अफसर वगैरह लोग आते हैं. इन्हें लगता है कि ये दुनिया के सबसे बड़े इंटेलेक्चुअल हैं और पॉलिटिक्स, सोसायटी, आर्ट वगैरह से नीचे की टॉपिक्स पर लिखना इनके लिए तौहीन की बात है. कभी-कभी अच्छे मूड में होने पर ये कुछ फनी लिखने की भी कोशिश करते हैं जो जेनेरली असफल ही होता है. ये महीनों-बर्षों मेहनत करके अपने इर्द-गिर्द भक्तों और चमचों की एक फ़ौज खड़ी कर लेते हैं जो इनके हर पोस्ट पर ऐसे ताली बजाती है जैसे इससे कालजयी आज तक लिखा ही नहीं गया. ये सिर्फ पोस्ट करते हैं. दूसरों के पोस्ट्स को लाइक करना, उनपर कमेंट करना या छोटे-मोटे लोगों के कमेंट्स का जवाब देना ये समय की बर्बादी समझते हैं. अगर किसी भक्त से ज्यादा खुश हों तो कभी-कभी एक-दो शब्द लिख देते हैं जिससे वह भक्त अपने आप को धन्य मानता है.  (more…)

  • फेसबुक पर पाए जाने वाले 20 तरह के प्राणी

    फेसबुक पर पाए जाने वाले 20 तरह के प्राणी

    हममें से अधिकाँश लोग इंटरनेट पर अपना अधिकाँश समय सोशल साइट्स पर बिताते हैं और फेसबुक उन साइट्स में सबसे ऊपर आती है. अगर आप गौर से देखें तो फेसबुक पर आपके जितने भी फ्रेंड्स हैं उनको (और खुद को भी) कुछ कैटेगरीज में बाँट सकते हैं. वैसे तो फेसबुक पर अनगिनत किस्म के प्राणी हैं पर सबसे ज्यादा पाए जाने वाले और सबसे घातक और खतरनाक टाइप के प्राणी निम्नलिखित 20 टाइप के होते हैं. ध्यान रखें कि आप और हम भी इनमें से कई कैटेगरीज में शामिल हैं.

    *वैधानिक चेतावनी:

    • यहाँ लिखी बातों की किसी भी  जीवित या मृत व्यक्ति से समानता संयोग मात्र बिल्कुल नहीं है.  
    • यहाँ लिखी बातों को सीरियसली लेना सख्त मना है. अगर सीरियसली लेना ही हो तो अपने रिस्क पर लें. 

    1. द टैगकर्ता- ये फेसबुक पर पायी जाने वाली सबसे खतरनाक किस्म की प्रजाति है. ये फेसबुक पर पोस्ट-वोस्ट नहीं लिखते. बस हर दिन सौ-पचास फोटो अपलोड करते हैं- फूल, नदी, जानवर, सेलेब्रिटी, देवी-देवता, उपदेश इत्यादि की. गूगल इमेज सर्च को ये दुनिया के लिए वरदान मानते हैं. ये बड़े भोले किस्म के जीव होते हैं.  ये हर फोटो में सौ-पचास लोगों को टैग करते हैं. इनको लगता है कि जो महान और ख़ूबसूरत फोटो इन्होने अपलोड की है उसे सबको दिखाना इनका कर्तव्य है. अब लोग लापरवाह हैं, कहीं भूल जाएँ देखना; तो इसलिए ये उनको टैग कर देते हैं. कभी-कभी तो ये अपनी पासपोर्ट साइज़ फोटो में सौ-दो सौ लोगों को टैग कर देते हैं.

    उपाय: अगर टैगकर्ता आपसे उम्र, पद, प्रतिष्ठा में छोटा है तो एक बार हड़का दें, दुबारा टैग करने पर ब्लॉक या अन्फ्रेंड करें. अगर टैगकर्ता आपके वर्तमान, भूत या भविष्य को प्रभावित करने की क्षमता रखता है तो जाकर लाइक करें और लिखें. ‘दैड्स अमेजिंग. थैंक यू फॉर टैगिंग’ . बन पड़े तो फोटो को शेयर भी करें. अगर आप सीधे-साधे जीव हैं और टेंशन नहीं लेना चाहते तो चुपके से जाकर टैग हटाते रहें.

    2. द रीडर- ये बड़े निरीह प्राणी होते हैं. किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते. ये फेसबुक पर न कुछ लिखते हैं, न कमेंट करते हैं न कुछ लाइक करते हैं. कभी-कभी लोगों को पता भी नहीं चलता कि वो फेसबुक पर हैं भी. लेकिन यह फेसबुक पर सबकुछ पढ़ते हैं. आपकी हर पोस्ट, हर कमेंट. और कभी कभार बातचीत में ये बोलेंगे,”हाँ ये तो आपके फेसबुक पर देखा था”.

    उपाय: कोई उपाय जरूरी नहीं. बस एक डायरी मेंटेन करें कि ये भी फेसबुक पर हैं, जिससे कि आप कभी गलती से इनके बारे में कुछ उल्टा-पुल्टा न लिख बैठें.

    3. द ताकू-झाँकू- ये ख़ुफ़िया जीव हैं जो आपकी हर गतिविधि पर नज़र रखते हैं. हो सकता है कि अपनी प्रोफाइल पर उतना टाइम आप भी नहीं स्पेंड करते हों जितना ये करते हैं. ये आपकी हर पोस्ट, कमेंट और फोटो एल्बम में गहरी दिलचस्पी लेते हैं. हो सकता है कि उसको अपने कम्प्यूटर में सेव करके भी रखते हों. ऐसा ये क्यों करते हैं यह डिपेंड करता है. लेकिन यह तो तय है कि उनकी आपमें गहरी दिलचस्पी है.

    उपाय: कोई सेंसिटिव तस्वीर या इन्फोर्मेशन न डालें. अपने भूतपूर्व प्रेमियों/प्रेमिकाओं/आशिकों पर खास नज़र रखें.

    4. द गेमर- ये फेसबुक पर उपलब्ध तमाम तरह के गेम खेलते हैं- फार्मविले, माफियाविले, गटरविले और पता नहीं क्या क्या. और दिन भर में इसके दस-बीस अपडेट आते हैं – ‘आई गॉट लेवल फाइव ऑन फ़ार्मविले’, ‘माई टोमैटोज आर रेडी, डू यू वांट सम’, बी माई नेवर ऑन माफिया विले’ वगैरह-वगैरह.

    उपाय: इनके झांसे में आकार गलती से कोई गेम ज्वाइन न करें. बहुत पछताएंगे. इनके स्टेटस अपडेट्स को ब्लॉक करें.

    5. द अटेंशन सीकर- जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है ये अटेंशन के भूखे होते हैं और इसके लिए कुछ भी कर सकते हैं. ये ज्यादातर एन्क्रिप्टेड कोड टाइप के मैसेज लिखते हैं जिसे इनके अलावा कोई नहीं समझ पाए. जैसे- “आई न्यू इट विल हैप्पेन.”, आई कांट बिलीव यू कैन डू दिस टू मी’, ‘यस, आई डिड इट’ वगैरह वगैरह. ये उम्मीद करते हैं कि इनका कोडेड सन्देश लोग समझेंगे नहीं और पूछेंगे कि क्या हुआ.

    उपाय: भूल कर भी न पूछें कि क्या हुआ. ज्यादा खुश हैं तो बस लाइक कर दें.

    6. द गुरु- इनका काम होता है इंटरनेट से बड़े-बड़े फिलोस्फर्स और विद्वानों के Quotes कॉपी करके फेसबुक पर डालना. इनको लगता है कि और लोगों को नहीं पता कि ऐसे महान उपदेश इंटरनेट पर उपलब्ध हैं. और इन्हें आम जनमानस तक पहुंचाना उनका कर्तव्य है.

    उपाय: अगर आप दिन भर महान उपदेशों को पढकर इनफीरियरिटी कॉम्प्लेक्स नहीं प्राप्त करना चाहते तो इनके स्टेटस अपडेट को अनफौलो करें.

    7. द दुष्ट- आपके कमीने दोस्त इस श्रेणी में आते हैं. इनका एक ही काम होता है. जब भी आप कुछ ढंग का लिखकर भोकाली बनाने की कोशिश कर रहे हों ये वहाँ आकार रायता फैला देंगे. जैसे आपने ‘ग्लोबल वार्मिंग, न्यूक्लियर वेस्ट और इकॉनोमिक क्राइसिस के बीच रिलेशन बैठाते हुए कोई धाँसू सी पोस्ट मारी. तो वहाँ आकार ये कमेंट करेंगे,”और तेरे लूज मोशन ठीक हुए या अभी भी…?” या “ये बालकनी में लाल रंग का फटा अंडरवियर तेरा पड़ा है क्या? जाके उठा ले.. बारिश आ रही है”.

    उपाय: अगर आप सरे बाज़ार अपना पोपट नहीं बनवाना चाहते तो इनको खिलाते-पिलाते रहें.

    8. द दुखी आत्मा- ये रोंदू टाइप जीव होते हैं. इनको लगता है कि दुनिया में और उनकी अपनी ज़िंदगी में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा. इनको लगता है कि दुनिया में हर कोई उनको परेशान करने के लिए षड्यंत्र कर रहा है. ये हर स्टेटस में रोते रहते हैं. ऐसे लोगों में  धोखा खाए और गर्लफ्रेंड-ब्वायफ्रेंड के ठुकराए प्रेमी ज्यादा होते हैं.

    उपाय: इनसे सौ फीट की दूरी बनाकर रखें. क्योंकि यह कम्यूनिकेबल बीमारी है. 

    9. द हाइजैकर- ये अजीब किस्म की प्रजाति है. ये आपके पूरे पोस्ट को ही हाइजैक कर लेंगे. ये पोस्ट के टॉपिक से हटकर कुछ अलग ही बात शुरू कर देंगे. जैसे आपने भ्रष्टाचार और पॉलिटिक्स पर कुछ लिखा तो वो आकार कमेंट करेंगे,’हाय, हाउ आर यू? सब ठीक चल रहा है?’  और फिर वो चैटिंग में बदल जाएगा. कभी-कभी उनके और दोस्त भी चैटिंग को ज्वाइन कर लेंगे और आपको लगेगा कि ये आपकी नहीं उनकी ही पोस्ट है. आपके जो मित्र आपकी पोस्ट पर कमेंट करना चाहेंगे वे वहाँ रायता फैला देखकर निकल लेंगे. 

    उपाय: टॉपिक से अलग कमेंट का जवाब पोस्ट पर न देकर मैसेज में या उनकी वाल पर जाकर दें जिससे रायता वहीं फैले. आपकी पोस्ट पर नहीं.

    10. द लिंकचेंपू- इनका काम होता है इंटरनेट में इधर-उधर से लिंक लेकर चेपना. न्यूज, आर्टिकल, सर्वे, यूटयूब वीडियो और अन्य तरह की मनोरंजक और उपयोगी सामग्री. इनकी फेसबुक वाल एक भरे-पूरे मनोरंजन पोर्टल की तरह होती है. कभी मन न लगे तो आप इनकी वाल का इस्तेमाल एक वेबसाईट की तरह कर सकते हैं. यह प्राणी अगर ब्लॉगर भी है तो अपनी हर पोस्ट का लिंक भी चेंपेगा. सावधान रहें.

    उपाय: इनके स्टेटस अपडेट को नियमित देखने के बजाये आप शाम को एक बार उनकी वाल पर जाकर दिनभर का पूरा मसाला देख लें. इससे आपके समय की बचत होगी.  

    अब चूंकि यह पोस्ट कुछ ज्यादा ही लंबी और चाटू होती जा रही है इसलिए इसको यहीं निपटाते हैं. बाकी दस तरह के जीवों से अगली पोस्ट (पार्ट 2) में मिलते हैं.  कीप फेसबुकिंग … 😉

  • बाजा और ज़िंदगी- मीडियम वेब से एफएम तक

    बाजा और ज़िंदगी- मीडियम वेब से एफएम तक


    रेडियो कम ‘बाजा’ ज्यादा कहते थे. शहरी लोग बचपन को याद करते हैं तो मिकी माउस कार्टून और मारियो गेम की बात करते हैं. मुझे बाजा याद आता है. रेडियो को अलग कर गाँव के दिनों के बारे में नहीं सोचा जा सकता. जिंदगी से बड़े गहरे तक जुड़ा रहा है यह यंत्र. कितनी सारी घटनाएँ, बातें और लोग सिर्फ बाजे के कारण याद हैं. बाजा जीवन और पर्सनैलिटी के एक पूरे अलग हिस्से का साथी, उसका गवाह रहा है. बल्कि यूँ कहें कि उस हिस्से को बनाया ही बाजे ने.

    टीवी उस समय गाँव में दो या तीन घरों में रहा होगा. उनमें से ज्यादातर घरों में टीवी दहेज में आया था. टीवी देखने का किस्सा भी इंटरेस्टिंग हुआ करता था. पर उसपर बात फिर कभी. तो बाकी गांव में संचार, समाचार और मनोरंजन का एक ही साधन होता था – रेडियो, बोले तो बाजा. जिस घर में एकाध पढ़ा-लिखा जागरूक आदमी हो उस घर में एक बाजा तो होता ही था.
    संतोष बाजा को सभी बाजों का दादा कहें तो गलत नहीं होगा. पहले और भी पुराने ब्रांड होते होंगे – बुश, मरफी वगैरह लेकिन मैं अपने बचपन की बात करूँ तो सबसे पुराना बाजा संतोष ही याद है. लकड़ी का कवर होता था. दो बड़ी-बड़ी घुन्डियाँ- एक वाल्यूम के लिए और एक स्टेशन बदलने के लिए. चार बैटरी लगती थी उसमें. संतोष को रिलायबल ब्रांड माना जाता था..अब संतोष रेडियो बनना बंद हो गया शायद. फिर अगला सबसे पोपुलर और सस्ता ब्रांड आया रामसंस या रैमसंस (Ramsans). एक्चुअली यह संतोष रेडियो का चाइनीज वर्जन था. फिलिप्स, सोनी वगैरह अभी बिहार के गांवों तक नहीं पहुंचे थे. तो रामसंस बाजा आने के बाद ‘बाजा मिस्त्री/मैकेनिक’ के प्रोफेशन में भारी बूम आया. क्योंकि इस रेडियो का कवर सस्ते प्लास्टिक का होता था और साधारण परिस्थियों में गिरने के बाद उसके कल पुर्जे अलग-अलग हो जाते थे. लेकिन गाँव में सेफ्टी का असाधारण रूप से ध्यान रखने वाले लोग भी थे. इसलिए अक्सर लोग डेढ़-दो सौ के रेडियो के लिए चमड़े, कपड़े या मोटे उनी कम्बल का कवर बनाते थे. उससे रेडियो का लुक थोड़ा खराब होता था पर उसका रेजिस्टेंस पावर बढ़ जाता था. 

    रेडियो को जितना संभाल के रखा जाता था उतना क्या आजकल लोग लैपटॉप और स्मार्टफोन को रखते होंगे. जेनेरली बच्चों (बच्चा बोले तो सत्रह-अठारह साल की उम्र वाले) को अलाउड नहीं होता था रेडियो को हाथ लगाना. हाँ, यहाँ तक अलाउड था कि जब पिताजी, चच्चा, बाबा वगैरह बोलें कि ‘मंटू ज़रा बजवा लेके आउ तो. साढ़े सात के समाचार के टाइम हो गेलइ’ (मंटू, ज़रा बाजा लेके आना तो, साढ़े सात बजे के समाचार का टाइम हो गया) तो मंटू  एकदम चौड़े होकर रेडियो लाकर आकाशवाणी पटना लगाकर चौकी पर रख देते थे. 10 मिनट का होता था (है) प्रादेशिक समाचार. मुख्यमंत्री ने ये बोला, राज्य में धान की रोपाई शुरू, सोनपुर मेला में बारह ऊँट और हाथी बिके.. यही सब समाचार होते थे. समाचार से ज्यादा दिलचस्प होती थी उसके बाद होने वाली बहस. बिहार में साधारणतः हर मध्यवर्गीय किसान के घर के बाहर एक ‘दालान’ होता है जिसे मर्दों का स्पेस कह लीजिए, अतिथियों का गेस्ट हाउस या घर के लड़के का अपने दोस्त-यारों के साथ मजलिस लगाने की जगह. तो शाम को टोले में किसी एक व्यक्ति के दालान पर आसपास के सभी लोग बैठक लगा लेते थे. चिलम वगैरह सुलगने लगा, खैनी रगडी जाने लगी और रेडियो पर प्रादेशिक समाचार बजने लगा. समाचार भी कोई अकेले सुनने की चीज है. जब तक समाचार के बाद उसपर बमपेल बहस न हो समाचार का मजा ही क्या?  उस बहस में संसदीय भाषा का प्रयोग जरूरी नहीं था.. किसी भी जाति, समुदाय या नेता को खुलकर गरियाया जा सकता था. उस बहस को जिसने सुना हो उसे आजकल की टीवी पर होने वाली हवाछाप बहसों में मजा कभी नहीं आएगा.  समाचार के पहले और बाद में यूरिया, खाद, कीटनाशक वगैरह के विज्ञापन आते थे जिसे मुझे नहीं लगता कोई गंभीरता से सुनता था. प्रादेशिक समाचार खत्म होने के तुरंत बाद ‘जिले’ की चिट्ठी’ सुनाई जाती थे.. आसपास का पटना, गया, नवादा, जहानाबाद जिला हुआ तो ठीक नहीं तो मंटू को तुरंत प्रभाव से बीबीसी हिन्दी लगाने का आदेश होता था. रोज के इस एक-डेढ़ घंटे के समाचार और करेंट अफेयर्स सत्र (जो मुझे लगता है आज भी कई गांवों में कमोवेश जारी है) के कारण मैं दावा करता हूँ कि बिहार के गाँवों के थोड़े से जागरूक लोग किसी यूपीएससी परीक्षा के कैंडिडेट को करेंट अफेयर्स में पानी पिला सकते हैं.

    रेडियो दिन के अलग-अलग समय में घर के अलग-अलग लोगों की जिंदगी से जुड़ा होता था. दोपहर को  माँ, चाची, दीदी वगैरह लोग छत पर धान-गेहूं सुखाती हुई ‘नारी-जगत’ और लोकगीत सुनती थीं तो सुबह के साढ़े आठ  बजे घर का नया मैट्रिक पास लड़का विविध भारती पर ‘चित्रलोक’ में नये गानों पर थिरक रहा होता था.  शाम का समय घर के बड़ों के समाचार सुनने का उसके बाद रेडियो फिर घर के लड़के-लड़कियों के कब्जे में. रात में रेडियो पर बज रहे रफ़ी और किशोर के गीत एक छत से दूसरी छत तक न जाने क्या-क्या सन्देश पहुंचा रहे होते थे.  उस समय गाने से पहले गायक, गीतकार, संगीतकार सबका नाम आता था. अगला गीत है फिल्म ‘आन मिलो सजना’ से, गीतकार हैं आनंद बख्शी, संगीत दिया है लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल ने और गाया है किशोर कुमार और लता मंगेशकर ने. मतलब पूरा जेनरल नॉलेज. भारतीय संगीत के बारे में आज जो भी समझ है वह रेडियो के ही कारण है. ग़ज़ल सुनना आकाशवाणी पटना के उर्दू कार्यक्रम ने सिखाया. पन्द्रह साल की उम्र में अगर मेंहदी हसन, अहमद हुसैन-मुहम्मद हुसैन और गुलाम अली अच्छे लगने लगे थे और उर्दू के मुशायरे समझ में न आते हुए भी आकर्षित करते थे तो इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ रेडियो ही था.

    रामसंस छाप चायनीज रेडियो ने घर-घर में इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर्स की एक पीढ़ी तैयार की. यह रेडियो गिर-पड़के बराबर सरेंडर कर देता था और घर के लौंडे को लगता था कि एकाध तार-वार ही तो टूटा है और ढक्कन ही तो अलग हुआ है. तो इसके लिए मिस्त्री को रूपये देने का कोई मतलब नहीं है. और फिर शुरू होता था पेंचकस लेकर रेडियो पर इलेक्ट्रोनिक प्रयोग करने का दौर. यह प्रयोग अक्सर रेडियो की दशा को और दुर्गति की ओर ले जाता था और इसका समापन घर के पापा, चाचा, ताऊ द्वारा पड़ने वाली गालियों और डंडों से होता था. अपने घर में बाजा इंजीनियर मैं ही था. आगे विवरण देना मुझे ठीक नहीं लग रहा है. 😉

    उस समय रेडियो में दो बैंड होते थे- मीडियम वेब और शोर्ट वेब. बड़े लोग कहते थे कि रेडियो का बैंड बदलने से पहले रेडियो को बंद कर देना चाहिए नहीं तो खराब हो सकता है. शॉर्ट बैंड पर एक-दो स्टेशन समझ में आते थे बाकी पता नहीं ‘गूं,गां,गूं’ टाइप किस भाषा में आते थे, लगता था वे किसी और ग्रह के चैनल हैं. शॉर्ट बैंड के स्टेशंस में एक और प्रोब्लम थी कि रिसेप्शन ठीक नहीं आता था. रेडियो कि पकडकर इधर-उधर हिलाते रहना पड़ता था. क्या अंतर था मीडियम वेब और शोर्ट वेब में यह तो नहीं पता था बस इतना जानते था कि आकाशवाणी पटना और विविध भारती मीडियम वेब पर आता है और बीबीसी शॉर्ट पर. और हाँ एक ऑल इंडिया रेडियो उर्दू भी आता था शॉर्ट वेब पर जिसपर कभी कभी दोपहर में अच्छे फरमाइशी गाने आते थे. गाँव रामपुर से चिंटू, मिंटू, टिंकी, मम्मी-पापा और गाँववाले सुनना चाहते हैं फिल्म ‘धरती कहे पुकार के’ का ये गाना. इसी गाने की फरमाईश की है झुमरी तिलैया से ललन, डमरू, मुरारी और उनके साथियों ने.  रेडियो पर नाम सुनने का अपना रोमांच था. विविध भारती पर एक प्रोग्राम आता था शाम के चार बजे -हैलो फरमाइश. उसमें लोग फोन करके गानों की फरमाइश करते थे. पता नहीं अब करते या नहीं. कमल शर्मा, युनूस खान, ममता सिंह वगैरह एंकर्स की आवाज का अपना ही जादू था. टीवी और एफएम वाले एंकर्स अब भी लल्लू लगते हैं उनके सामने.

    इसके बाद बिहार से औद्योगिक पलायन का दौर शुरू हुआ जब गाँव के लड़के दिल्ली, लुधियाना और सूरत जाने लगे और वहाँ से लेकर आये एफएम और दस बैंड वाले रेडियो. साइज में छोटे, डेढ़ हाथ का एंटीना और पेन्सिल बैटरी से चलने वाले. वो दस बैंड काहे के लिए थे ये मुझे कभी समझ नहीं आया. क्योंकि सुनने लायक स्टेशन एक-दो पर ही आते थे. जो एक नयी चीज थी वो थी ‘एफएम’ जिस पर वही विविध भारती आता था लेकिन रिसेप्शन बिलकुल साफ़. इस रेडिओ ने पोर्टेबिलिटी को बढ़ाया. अब गाँव के लड़के रेडियो हाथ में लेकर बाहर निकलने लगे. गाँव के पोखर, पुलिया हर जगह कोई लौंडा रेडियो पर गाना बजाता दिख जाता था. जो चीज हमें अच्छी लगती है वो हम दूसरों को भी दिखाना-सुनाना चाहते हैं. इसलिए कोई अच्छा गाना आते ही रेडियो का वाल्यूम बढ़ जाता था. वहाँ से गुजरते हुए बड़े-बूढ़े अक्सर ऐसे लौंडों को गरियाते हुए निकल जाते थे.

    अब भी कहीं-कहीं रेडियो बचा हुआ है गांवों में पर ज्यादातर इसकी जगह सस्ते नोकिया और चायनीज मोबाइल फोन्स ने ले ली है. अब लोग रेडियो पर पसंद के गाने का इंतज़ार नहीं करते, उसके लिए पोस्टकार्ड नहीं लिखते, फोन नहीं करते. वे गाने सीधे मोबाइल में डाउनलोड कर लिए जाते हैं और मनचाहे समय पर बजाए जाते हैं. इससे उन गानों की जो एक खास प्रीमिअम वैल्यू थी वो खत्म हो गयी है. वे अब अच्छे भी नहीं लगते. उसके अलावा पिछले 2-3 सालों में नए एफएम चैनलों की बाद आयी है -मिर्ची एफएम, रेड एफएम, हॉट एफएम. कितने सारे स्टेशन आ गए हैं जो एकदम नए गानों के साथ दिल्ली वाली तू-तेरा-मेरे को-तेरे को वाली लैंगुएज और कल्चर को यूपी-बिहार के गांवों तक पहुंचा रहे हैं. रेडियो कल्चर बदल गया है अब. इसकी भाषा, इसके मकसद इसके सारे मायने बदल गए हैं.

    स्कूल के समय में ज्यादा रेडियो सुनने के लिए कई बार डांट पड़ती थी. पर रेडियो को छोड़ना मुश्किल था. एक एडिक्शन टाइप था. अब रेडियो की जगह कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर और स्मार्टफोन के म्यूजिक एप्स ने ले ली है पर वो बात जो रेडियो में थी कहीं खो गयी है.