अन्ना आंदोलन के मायने

by Dr. Satish Chandra Satyarthi  - August 3, 2012

anna hazareअन्ना के जनलोकपाल आंदोलन का मैं शुरू से ही गंभीर समर्थक रहा हूँ. पर अंध समर्थक नहीं. इस मुद्दे के कई पहलुओं पर गंभीरता से सोचता रहा हूँ. लोगों को सुनता रहा हूँ. आन्दोलन के कट्टर आलोचकों को भी और लालू और मनीष तिवारी जैसों को भी. इस पूरे आंदोलन से यह उम्मीद तो मुझे कभी नहीं थी कि यह कोई साल छह महीने में देश को  भ्रष्टाचार से मुक्त कर देगा. सारे भ्रष्ट नेता राजनीति छोड़ कर भाग जायेंगे और देश में रामराज्य होगा. मेरे ख्याल से किसी भी औसत बुद्धि और राजनीति की थोड़ी बहुत समझ रखने वाले को यह बात अच्छी तरह पता होगी. लेकिन यह पता होना भी इस आंदोलन के प्रति मेरे सम्मान, मेरे समर्थन को कहीं से भी प्रभावित नहीं करता था. अभी भी नहीं करता है. दरअसल आन्दोलनों और विचारों का मूल्यांकन उनके तात्कालिक परिणामों से किया जाना ही नहीं चाहिये. न ही मूल्यांकन जंतर मंतर और रामलीला मैदान पर जमा होने वाली भीड़ (वैसे ये शब्द सही नहीं है) से होना चाहिए. और न ही मीडिया के कैमरों की संख्या और  मंच से जारी होने वाले बयानों से होना चाहिये. अगर इन पैमानों को आधार मानकर आंदोलनों का मूल्यांकन किया जाए तो दुनिया के अधिकांध आंदोलन असफल माने जायेंगे, निरर्थक माने जायेंगे. गाँधी ने आजादी की लड़ाई बीसवीं सदी की शुरुआत में शुरू की और इसका परिणाम दशकों बाद मिला. इस हिसाब से चम्पारण और नमक आन्दोलन से लेकर भारत छोडो आंदोलन तक का कोई औचित्य नहीं था. न ही मंगल पाण्डेय के विद्रोह और न ही खुदीराम बोस, भगत सिंह और आजाद की शहादत की कोई सार्थकता थी. क्योंकि इन सबका कोई परिणाम सालों तक  नहीं दिखा था. इनमें से कई को मीडिया और आम जनता का अपार जनसमर्थन भी नहीं मिला था. फिर क्या पैमाना हो ऐसे आन्दोलनों की सफलता का. बात किस चीज पर हो?

मेरे हिसाब से बात मुद्दे पर होनी चाहिए, बात नीयत पर होनी चाहिए. मूल्यांकन आंदोलन के मुद्दे और नीयत का होना चाहिए. आज से तीन साल पहले देश की अधिकाँश जनता न अन्ना को जानती थी न केजरीवाल को. जो लाखों की भीड़ रामलीला मैदान में आयी थी वो अन्ना के दर्शन करने या केजरीवाल का भाषण सुनने नहीं आयी थी. वह आयी थी क्योंकि वहाँ बात हो रही थी उसके मुद्दों की, उसके सरोकार की, उसके घर की. झारखंड के गाँव के अनपढ़ मजदूर से लेकर दिल्ली और मुंबई की पॉश कॉलोनी का एलीट अगर हाथ में झंडा लिए सड़क पर आया था तो सिर्फ इसलिए कि जो बात हो रही थी वह उसकी रोजमर्रा की जिंदगी से सीधे जुड़ी थी. आई आई टी की छात्र से लेकर चाय की दूकान तक के छोटू तक को यह पता था कि उस अकेले की आवाज में इतनी बुलंदी नहीं कि वो नौर्थ ब्लॉक और रायसीना हिल की मोटी दीवारों के पीछे तक पहुँच सके. पर वह अपनी आवाज को रामलीला और जंतर मंतर से आने वाली आवाजों से इसलिए जोड़ना चाहता था ताकि सत्ता के गलियारों में बैठे लोगों को यह सनद रहे कि देश की अवाम अभी ज़िंदा है. उसके अंदर की आग अभी चुकी नहीं है. इस आंदोलन की जो सबसे बड़ी सफलता मैं मानता हूँ वह इस बात में है कि इसने देश की एक अरब इक्कीस करोड की आबादी को एक उम्मीद दे दी, एक सपना दे दिया. जो जनता हताश, निराश हो गयी थी कि इस देश का कुछ भी नहीं हो सकता उसे यह लगने लगा कि नहीं, कुछ हो तो सकता है. ये निचले, पिछड़े तबके से लेकर, मध्यमवर्ग और एलीट क्लास तक की जागी हुई उम्मीद इस आंदोलन की सबसे बड़ी कामयाबी है, सबसे बड़ी मंजिल है जो यह हासिल कर चुकी है.

अन्ना के आंदोलन को जो अपार जनसमर्थन मिला वह इसलिए कि मुद्दा सीधे हमारे दिलो-दिमाग को छूता था. हमें यह अहसास था कि यह चौहत्तर साल का बूढ़ा टूटी-फूटे हिन्दी में जो भी कह रहा है वह हमारी बेहतरी के लिए कह रहा है. हमें अन्ना और उनकी टीम के सदस्यों के बयानों पर, उनके तरीकों पर, उनके व्यक्तित्व और उनके बौद्धिक स्तर पर संदेह हो सकता है, पर उनकी नीयत पर संदेह कभी नहीं था. और यह इस आंदोलन की सबसे बड़ी मजबूती थी और है. इमानदारी से कहूँ तो मैं इस आंदोलन के मंच से निकलने वाले हर नारे और हर बयान का समर्थक कभी नहीं रहा. कई बार अन्ना टीम के तरीके और रवैये से मेरी गहरी असहमति रही है. लेकिन उनकी नीयत पर संदेह नहीं रहा कभी. और जब तक इस आंदोलन के मुद्दे से मैं अपने आप को जुड़ा महसूस करता हूँ और जब तक मुझे उनकी नीयत पर भरोसा है, तब तक मैं इस आंदोलन के साथ हूँ; चाहे यह आंदोलन कोई भी तरीका अपनाए, शांतिपूर्ण अनशन का, राजनीतिक विकल्प का या कोई और.

व्यक्तिगत रूप से मैं अन्ना, उनकी टीम और इस आंदोलन के चुनावी राजनीति में उतरने का समर्थक बिलकुल नहीं हूँ. और ऐसा इसलिए कि मैं राजनीति के बारे में जो भी थोड़ा-बहुत जानता हूँ वह ड्राइंग रूम में बैठकर पिज्जा खाते हुए टीवी बहसों से नहीं सीखा. मैं भारत के उन गांवों की जमीन पर पाला-बढ़ा हूँ जहाँ से राजनीति शुरू होती है और दिल्ली तक पहुँचती है. मैंने बंदूकों के साये में और मुर्गे की टांगों के बीच चुनावों के उन बक्सों भविष्य तय किया जाता देखा है जो यह तय करते हैं कि नौर्थ ब्लॉक में कौन बैठेगा. मैंने अच्छे और ईमानदार उम्मीदवारों की आत्महत्या और क़त्ल होते देखा है. और जिसने भी राजनीति की उन जमीनी सच्चाइयों को देखा है वह अन्ना के चुनावी  राजनीति में उतरने का समर्थन कभी नहीं करेगा. अन्ना चुनावी राजनीति में इन चोरों को कभी नहीं हरा सकते. राजनीति में सफल होने के लिए पैसे और गुंडई के अलावा दो और गुण चाहियें- बेशर्मी और धूर्तता, जिसमें भारत के वर्तमान नेताओं को पीछे छोड़ना न अन्ना के बस की बात है न केजरीवाल की और न बाबा रामदेव की.

जनता कल अगर गाँधी के साथ थी उन्हें पूजती थी, और आज अन्ना के साथ है और उन्हें पूज रही है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि ये गंदी राजनीति के कीचड़ से अलग रहकर उसे साफ़ करने की कोशिश कर रहे थे. गाँधी भारत को आजादी दिलाकर खुद प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति क्यों नहीं बने इस बात को समझना जरूरी है आपके लिए, अन्ना. उस कीचड़ में घुसकर अपने कुर्ते को सफ़ेद रख पाना आपके लिए बहुत मुश्किल होगा. और यह आपको बेहतर पता होगा कि इसे सफ़ेद रखना कितना मुश्किल और जरूरी है. वो लोग तो कीचड़ में डूबे बाल्टी लेकर आपका इंतज़ार कर रहे हैं. उनके पास खोने को कुछ नहीं है और आपके पास पाने को बहुत कुछ. देश ने नेताओं को बहुत देखा, बहुत धोखा खाया, अब उसे नेता नहीं निस्वार्थ सुधारक चाहिए. बस उम्मीद है कि अन्ना और उनकी टीम के समझदार सदस्य कोई भी निर्णय जल्दबाजी में नहीं लेंगे.

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Dr. Satish Chandra Satyarthi

Dr. Satish Satyarthi is the Founder of CEO of LKI School of Korean Language. He is also the founder of many other renowned websites like TOPIK GUIDE and Annyeong India. He has been associated with many corporate companies, government organizations and universities as a Korean language and linguistics expert. You can connect with him on Facebook, Twitter or Google+

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