मैं असीम त्रिवेदी को कुछ दिन पहले तक नहीं जानता था. गिरफ्तारी के बाद जाना. उनके कार्टून्स भी उसके बाद ही देखे. मुझे कोई बहुत उच्च कोटि के कार्टूनिस्ट नहीं लगे. भ्रष्टाचार के विरोध में साधारण स्तर के कार्टून्स बनाते हैं जो ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की साईट और फेसबुक पेज पर डाले जाते हैं. इसलिए हजारों लोग लाइक भी करते हैं, सैंकडो लोग शेयर भी करते हैं. अन्ना और उनके आंदोलन के टैग को अगर उनके कार्टून्स से हटा दिया जाए तो शायद ही उनके कार्टून्स इतने लोगों तक पहुंचे और पसंद किये जाएँ. मैं अपनी बात कहते हुए बीच बीच में उनके कुछ कार्टून्स भी लगाता चलूँगा जिससे आप असीम त्रिवेदी की काम से भी रूबरू होते चलें.
एक कार्टून बनाने के लिए देशद्रोह का मुकदमा लगाकर किसी को गिरफ्तार करना किसी भी समझदार व्यक्ति को गलत लगेगा. मुझे भी लगा. लेकिन असीम के कई कार्टून्स को देखकर मुझे भी बड़ा दुःख हुआ. गंदगी और वीभत्सता को दिखाने के लिए उसे जस का तस उघाड़कर परोसना जरूरी नहीं है. कलाकार का काम होता है प्रतीकों के माध्यम से गंभीर से गंभीर बातों को प्रकट कर देना. वरना राजा रवि वर्मा जैसे चित्रकारों और सिनेमा के पोस्टर हुबहू उतार देने वाले पेंटर में कोई खास अंतर न रह जाए. अगर चीजों को ज्यों का त्यों दिखाना ही कला का सर्वश्रेष्ठ रूप है तो पॉर्न फ़िल्में रोमांटिक सिनेमा का सर्वश्रेष्ठ रूप मानी जायेंगी. अगर असीम के इन कार्टून्स को हम सही ठहराते हैं तो फिर हमें मकबूल फ़िदा हुसैन की विवादित तस्वीरों को भी खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए.
आजकल फेम सबको चाहिए. अच्छा काम करके इमानदारी से नाम कमाना मुश्किल है और इसमें समय बहुत लगता है. उलटा-सीधा करके टीवी पर आ जाना शॉर्टकट रास्ता है. यह प्रवृति नयी पीढ़ी के लोगों में (खासकर नए कलाकारों में) बड़ी तेजी से पनप रही है. फिफ्टीन मिनट्स ऑफ फेम ही सही, गलत काम के लिए ही सही पर लोग स्क्रीन और अखबारों के पहले पन्ने पर दिखना चाहते हैं और इसके लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं.
एक बात मुझे और नजर आती है कि लोग समझते हैं कि एक अच्छे मुद्दे, एक अच्छे उद्देश्य भर से जुड जाने से उनके द्वारा किये जाने वाले सारे काम और उनकी सारी बातें सही हो जायेंगी. भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन भर से जुड जाना किसी को गाँधी नहीं बना देता. गाँधी बनना इतना आसान नहीं है.
पर इन कार्टून्स पर मेरी सख्त आपत्ति के बावजूद भी मैं असीम त्रिवेदी पर देशद्रोह के आरोप और उनकी गिरफ्तारी को सही नहीं ठहराता. यह एक मूर्ख भी समझ सकता है कि इन कार्टून्स को बनाने के पीछे उनकी लापरवाही या अज्ञान हो सकता है, अतिउत्साह हो सकता है, इंस्टैंट पोपुलरिटी की मंशा हो सकती है, लेकिन देशद्रोह जैसी कोई बात तो नहीं ही होगी. सरकार को हर बात पर हथकड़ियाँ डालने की आजादी देना आगे के लिए बहुत खतरनाक होगा. तीसरी क्लास में एक कहानी में एक लाइन पढ़ी थी कि ‘गुलामी की हलवा-पूड़ी से आज़ादी का हवा-पानी ज्यादा स्वादिष्ट होता है’. देशद्रोह के ये क़ानून गुलामी के समय के बने हैं और गाँधी और तिलक जैसे लोगों पर भी लग चुके हैं. अब जरुरत है कि ऐसे कानूनों को या तो हटाया जाए या ठीक किया जाए.
हथकड़ियाँ लगाना इस तरह के मामलों का समाधान नहीं हो सकता. लोगों को ही कला और सेंसेशन का फर्क समझना होगा. और लोगों को ही गलत चीजों को सेंसर करना होगा. कोई भी स्वतंत्रता असीमित नहीं होती. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता भी नहीं. हमें इसकी सीमाएं खुद तय करनी होंगी. आजादी अकेले नहीं आती; उसके साथ एक जिम्मेदारी भी आती है. बिना जिम्मेदारी की आजादी को ही एनार्की कहा जाता है.
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