अभी बीबीसी पर एक खबर पढ़ी कि चीन सरकार के निमंत्रण पर वहाँ गये भारतीय युवाओं के एक दल के कुछ लड़कों और अपने दल और चीन की लड़कियों के साथ छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार किया. अब ये बीबीसी वाले भी किसी भी चीज को बड़ी न्यूज बनाकर छाप देते हैं. भारतीय लड़कों द्वारा छेड़छाड़ और अश्लील कमेन्टबाजी; इसमें ऐसी क्या बात है! यह तो हमारा स्वभाव और अधिकार है. हम अपने गाँव, मोहल्ले की लड़कियों को नहीं बख्शते तो ये तो विदेशी हैं. उनके साथ भेदभाव क्यों. उनके साथ भी बराबर की छेड़छाड़ होनी चाहिए. अपने देश में तो हम विदेशी महिलाओं से छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार करने में कसर नहीं ही छोड़ते. अब विदेश जाने का का मौक़ा मिला है वो वहाँ भी देश की इमेज तो बना के ही जाना है न!
हम कहते हैं “अतिथि देवो भवः”. कहने को तो बहुत कुछ कहते हैं हम. ये भी कि नारी देवी है, शक्ति है. कहने में कुछ लगता थोड़े है. अब कोई विदेशी महिला हमारे देश के इतिहास, आध्यात्म और संस्कृति के बारे में सुनकर, उससे प्रभावित होकर भारत घूमने आयी है और हम उनके आने से थोड़ा आनंद प्राप्त कर लें तो इसमें बुराई क्या है. वैसे भी हम हिन्दी, भोजपुरी, हरियाणवी में उनके बारे में भद्दी चीजें बोलते हैं तो उनको समझ थोड़े न आता होगा. और जब हम दोस्त लोग कमेन्ट पास कर भद्दी सी हँसी हँसते हैं वो महिलाएं हमारे हँसमुख स्वभाव से कितना प्रभावित होती होंगी. अपने देश जाकर बताती होंगी कि भारतीय लोग कितने हँसमुख होते हैं.
विदेशी महिलाएं हाफ-पैंट और स्कर्ट में रहती हैं. उनके देश में लड़का-लड़की सब कुछ खुलेआम करते हैं. कोई खुलेआम उनको धर पकड़ ले. उनको जबरदस्ती इधर-उधर हाथ लगाएं तो उनको अच्छा लगता है यह सब. हमारे भारत की लड़कियों जैसी नहीं होती हैं ये. इनके कल्चर में यह सब बुरा नहीं होता. वैसे यह सब हमने देखा नहीं है. पढ़ा तो जिंदगी में नहीं. कुछ लौंडे-लपाड़े टाइप दोस्तों को इन देशों के कल्चर के बारे में बहुत पता है. वही बताते हैं. इसलिए हम विदेशी टूरिस्ट औरतों से बहुत ‘खुल’ कर बीहेव करते हैं.
ओके. व्यंग्य बहुत हो गया. सवाल पर आते हैं. एक औसत भारतीय पुरुष के मन में ऐसी सोच क्यों है कम कपड़ों वाली विदेशी महिलाओं के प्रति? क्या जिन देशों में महिलाएं कम कपड़े पहनती हैं और आजाद घूमती हैं, सिगरेट शराब पीती हैं, वहाँ उनके साथ छेड़छाड़, थोड़ा बहुत अश्लील कमेन्ट वगैरह चलता है? और जिन संस्कृतियों में महिलाएं लंबे, मोटे कपड़ों में ढँकी रहती हैं, सिर झुका के चलती हैं, वहाँ वे अधिक इज्जत पाती हैं या उसकी हकदार होती हैं? मुझे लगता है इसका ठीक उलटा है. जहां लड़कियाँ अधनंगे कपड़ों में लड़कों के साथ हाथ लिपट के सिगरेट पीते हुए चलती हैं वहाँ छेड़छाड़ को बहुत ही गंभीरता से लिया जाता है. पहले तो ज्यादा संभावना है कि वह लड़की ही छेड़छाड़ करने वाले को ठीक कर देगी और अगर नहीं तो समाज और पुलिस भी इसे एक घटिया और गंभीर अपराध के रूप में लेता है. मैं कोरिया में रह रहा हूँ जो खुलेपन के मामले में अव्वल देशों में है लेकिन मैंने छेड़छाड़, कमेंटबाजी जैसी घटनाएं कम ही देखी-सुनी हैं. वहीं भारत, इंडोनेशिया, मिस्र और अरब जैसे देशों में जहां महिलाऐं काफी हद तक नियमों और परम्पराओं में बांध कर चलती हैं, वहाँ वे ज्यादा असुरक्षित हैं और उनके साथ हुए अपराधों को गंभीरता से नहीं लिया जाता.
और जब खुली-संस्कृति वाले देशों की महिलाएं भारत जैसे देशों में जाती हैं और उनके साथ ऐसा व्यवहार और ऐसी घटनाएं होती हैं वो बुरी तरह डर जाती हैं. क्योंकि उन्होंने जीवन में ऐसी घटनाओं का सामना कम ही किया होता है, इसलिए उन्हें यह भी पता नहीं होता कि ऐसी सिचुएशन में कैसे प्रतिक्रिया की जाए. फिर दूसरे देश में होने के कारण भाषा की समस्या और पुलिस का रूखा रवैया, ये सब उन्हें बस सब कुह्ह सह लेने को मजबूर करता है . और अंततः वे हमारे देश और संस्कृति के बारे में एक गंदी इमेज लेकर वापस लौटती हैं. यह सब मैं कोई थ्योरी या अपने विचार नहीं बतला रहा बल्कि मैं ऐसी कई महिलाओं से मिला हूँ जो भारत से घूम कर आयी हैं और उन्होंने अपने अनुभव मेरे साथ शेयर किया.
आप क्या सोचते हैं इस समस्या के बारे में. क्या है इसका कारण और इसे कैसे कम किया जा सकता है?
*चित्र बीबीसी से साभार
Diwakar Mishra says
सचमुच यह परेशानी की बात है । पहले मन में आया कि चिन्ता की बात है पर विचार बदल दिया । चिन्ता से कुछ होने वाला नहीं । कारण ढूँढ़ने पर बहुत मिलेंगे लेकिन इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार अंग्रेज हैं जो हमें अपनी संस्कृति पर शर्म और उनकी संस्कृति पर गर्व महसूस करवाने में सफल रहे । इसी प्रवृत्ति के चलते सीधा मतलब बेवकूफ़ माना जाता है, आदर्शवादी मतलब दकियानूसी, पारंपरिक मतलब पिछड़ा, धार्मिक (विशेषकर हिन्दू) मतलब साम्प्रदायिक, सादा मतलब आउटडेटेड समझा जाता है (बहुमत द्वारा) । अब पुराने आदर्श जिनको भारतीय संस्कृति का परिचय देते हुए गर्व से कोट करते हैं, उनका प्रयोग करे तो पिछड़ा, दकियानूसी आदि आदि इल्जाम झेले । जो फिर भी उनपर विश्वास करके अपनाए रखे, वह उपेक्षा झेले । जो गलत बात पर आपत्ति उठाए वह किस जमाने में रहता है, बस इतना ही तो किया, क्या हो गया? ऐसा नहीं है कि जब हमें अपनी संस्कृति पर शर्म नहीं होती थी तब दुर्व्यवहार नहीं होते थे पर उस कार्य को समाज में निन्दनीय दर्जा प्राप्त था और बहुमत इसे खराब मानता था । दबंग लोग कुछ भी करके दबा ले जाते थे पर ऐसे ही राह चलंतू कोई भी कुछ भी कर गुजरने लायक शायद नहीं होता था ।
Satish says
आपने बहुत सही विश्लेषण किया है, सर… मेरे ब्लॉग पर आने और अपनी बात रखने के लिए आभारी हूँ…
Nihar Rajan says
सतीश भाई. अपने अनुभव से बता सकता हूँ की इंसान की कुछ प्रविर्तियाँ पूरे विश्व में समान है. इसमें भूगोल, धर्म, संस्कृति, शिक्षा, खुलापन या ढकाँ होने से कुछ परिवर्तन नहीं. बस फर्क आता है कम या ज्यादा में. पाश्चात्य देशों में (जहाँ के पुरुषों को इन कुंठाओं से मुक्त होने की अपेक्षा कर सकते हैं) वहाँ भी ऐसी घटनाएँ होती रहती है. लड़कियों का पीछा करने वाले, उनको झाँकने वाले, उनपर फब्तियाँ कसने वाले हर जगह है. अपने देश में बिताये २४ साल में मैंने भी कहीं पर ना छेड़-छाड़ नहीं देखा. लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं की वहाँ ऐसा नहीं होता है.
मेरा मानना है की दूसरे देशों में कानून को सख्ती से लागू किया जाता है. मेरी एक अमेरिकी दोस्त ने पिछले दिनों बताया कि उसके आवासीय इलाके में एक अनजान लड़का छुप छुप कर टेलीफोटो लेंस से लड़कियों की तसवीरें ले रहा था. बस फ़ोन से शिकयात की गयी और मिनटों में उसे हवालात के अन्दर डाला गया. उसकी जमानत भी हुई लेकिन १०००० डॉलर कि बोंड पर. और ये बस एक उदाहरण मात्र है . तो मेरा कहना यह है कि ऐसी बातें हर जगह होती है. बस फर्क है कि नियम सख्त है और उनका पालन भी होता है. जो लोग यौनाचार में लित्प होते हैं उन्हें यहाँ पर हर शहर कि वेबसाइट पर नाम प्रकाशित कर देते हैं ताकि अगर आपके आसपास के इलाके में ऐसे लोग तो दोषी पाए जा चुके हों , उससे सावधान रहे. उतना ही नहीं यहाँ पर हर आदमी का एक पहचान नंबर होता है ( जैसी पहल अभी अपने देश में भी की जा रही है) जिसे आपको नौकरी देने से पहले हर आदमी, आपके भूत के बारे में जान सकता है. और जैसे ही आपके नाम के सामने “यौनाचार का दोषी” दिखा तो समझिए कि नौकरी गई. कहने का मतलब आप किसी तरह मजदूरी कर के पेट पाल सकते हैं , लेकिन अछि नौकरी तो कभी नहीं मिलनी है. इसके अलावे बच्चों के एक त्यौहार के दिन ….हर यौनाचार के दोषी के को अपने घर के बाहर ये सूचना टांगना कानूनी रूप से अनिवार्य है कि उसे यौनाचार के दोषी ठहराया जा चुका है.
इन तरह के नियमो के पालन के बाद…जो व्यक्ति में ऐसे जुर्म करता है उसका जीवन नरक सा हो जाता है.
तो मेरा मानना यही है कि अपने देश में कुछ ऐसे सकत क़ानून कि ज़रुरत है ( शायद हों भी ). लेकिन उससे भी ज़रूरी है उनका सख्ती से अनुपालन. लेकिन अपने देश कि सबसे सबसे बड़ी समस्या यही है कि क़ानून तो होते हैं लेकिन उनका पालन नहीं होता पाता कई कारणों से. अगर वो बदल तो ऐसी घटनाओँ में कमी ज़रूर आ सकता है. लेकिन क्या ये बिलकुल खत्म हो जाएगा? मेरा उत्तर है नहीं. मैं इसे मानसिक रोग कि संज्ञा दूँगा. एक ऐसा रोग जो बुखार कि तरह नहीं कि दवाई लाएँ और रोग ठीक हो जाएँ.
अच्छा आलेख. पढ़ कर अच्छा लगा. मेरा आभार स्वीकार करें.
-निहार रंजन
Satish says
निहार भाई,
सबसे पहले तो आपके इस विस्तृत और सूचनापरक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार..
कई सारी नई बातें पता चली…
आपकी बात बिलकुल सही है कि क़ानून का अनुपालन सबसे जरूरी है…