दो साल पहले जब अन्ना के नेतृत्व में जन लोकपाल आन्दोलन शुरू हुआ था तो पूरे देश में न सही, कम से कम शहरी निम्न-माध्यम वर्ग और पढ़े लिखे युवाओं के मन में उम्मीद की किरण जगी थी. जो आम आदमी सिस्टम में बदलाव की सारी उम्मीदें छोड़ चुका था उसे एक पल को यह अहसास हुआ कि अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ, कुछ हो तो सकता है. अन्ना, केजरीवाल और किरण बेदी जैसे दो चार मतवालों ने पूरे देश को एक उम्मीद दे दी थी. एक उम्मीद जो यह कहती थी कि आसमान में सुराख हो सकता है, बशर्ते कि पत्थर तबीयत से उछाला जाए. और पत्थर तबीयत से उछालने के लिए जनता सड़कों पर आ गयी थी. सफ़ेद गांधी टोपी पहने सड़क पर उतरी यह जनता सिर्फ कोई भूख और गरीबी से त्रस्त किसान-मजदूर-बेरोजगारों का हुजूम ही नहीं थी. इस भीड़ में एलीट शैक्षिक संस्थानों में पढ़ने वाला, कॉरपोरेट कंपनियों में नौकरी करने वाला वह युवा भी शामिल था जो आम तौर पर सड़क की क्रांतियों का हिस्सा बनना पसंद नहीं करता. इस भीड़ में वो फैशनेबल लड़कियां भी थीं जिनका गाहे-बगाहे इण्डिया गेट पर होने वाले कैंडल मार्च में हिस्सा लेने के अलावा किसी जमीनी आन्दोलन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था. जो लोग दिल्ली की दोपहरें अपने आरामदेह घरों में कोला पीते हुए, टीवी देखते हुए बिताते थे वे आज चिलचिलाती धूप में जंतर मंतर और रामलीला मैदान में उड़ते धूल के गुबार में अपना पसीना बहा रहे थे. और सबसे ख़ास बात यह थी कि गर्मी से कुम्भलाए चेहरों पर कोई शिकन, कोई शिकायत नहीं थी बल्कि एक दमकता तेज था, एक उम्मीद थी, एक ख्वाब था. यह उम्मीद देश के आम आदमी के चेहरे पर दशकों बाद दिखी थी. यह ख्व़ाब युवा आँखों में बरसों बाद दिखा था. और यह आन्दोलन मेरे लिए उसी वक्त अपने उद्देश्यों में सफल हो गया था. पाश ने कहा था कि सबसे ख़तरनाक होता है सपनों का मर जाना. जन लोकपाल पास हो या न हो, भ्रष्टाचार एक झटके में ख़त्म हो न हो जो एक काम इस आन्दोलन ने कर दिखाया वो था मरते सपनों को फिर से ज़िन्दा करने का. और कम से कम मेरे लिए, और मेरे जैसे करोड़ों युवाओं के लिए, यही इस आन्दोलन की सबसे बड़ी सफलता थी.
अन्ना के व्यक्तित्व में जो गरिमा है, समाज और देश के लिए जितना काम उन्होंने अपने जीवन में किया, सच्चाई और ईमानदारी की जो मिसाल उन्होंने अपने पीछे छोड़ी है वह इतिहास में उनका नाम महापुरुषों के साथ लिखवाने के लिए काफी है. पर गांधी के साथ उनकी तुलना पर मुझे शुरू से ही आपत्ति रही है. गांधी के सिद्धांत, गांधी की ईमानदारी, गांधी के विचार भले ही काफी हद तक अन्ना में दीखते हों पर समझ और विचारों में गांधी वाली गहराई का अभाव है. और ऐसा क्यों है इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है. अन्ना की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि उतनी समृद्ध नहीं रही जो गांधी को नसीब हुई थी. उन्हें कम उम्र में पढ़ाई छोड़ कर सेना में नौकरी करनी पड़ी. समाज और राजनीति के बारे में उनकी जो भी समझ है वह उनके सामाजिक कार्यों और आन्दोलनों के साथ-साथ विकसित हुई है. जब वो बोलते हैं तो बौद्धिक परिपक्वता की कमी स्पष्ट झलकती है. लेकिन एक ईमानदार बुजुर्ग की बातों में बौद्धिकता ढूंढना कबीर के देश की संस्कृति कभी रही भी नहीं. और इसलिए पूरा देश आँख मूँद के अन्ना के पीछे चल पड़ा. लेकिन कहीं न कहीं इसके पीछे लोगों का यह भरोसा भी काम कर रहा था कि अन्ना के साथ अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी जैसे लोग हैं जिनके पास न सिर्फ अपनी ईमानदारी की धरोहर है बल्कि जिन्होंने अपनी प्रतिभा का भी लोहा मनवाया है. किरण बेदी ने जहाँ देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी रहते हुए पुलिस को एक नई छवि दी थी वहीं मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविन्द केजरीवाल ने इन्कम टैक्स कमिश्नर की अपनी नौकरी को लात मारकर समाज सेवा को अपना कैरियर बनाया था. लोग इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि जब तक ये प्रतिभाशाली लोग अन्ना के साथ हैं भ्रष्ट राजनीतिक जमात उन्हें मूर्ख नहीं बना पायेगी.
लेकिन जो लोग छह सात दशकों से जनता को मूर्ख बनाकर देश को लूटते आ रहे थे वे इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं थे. उन्होंने झूठे वादों, प्रोपेगेंडा, छल, बल और कूटनीति सबका प्रयोग कर इस पूरे आन्दोलन को असफल बनाने की पूरी कोशिश की. अन्ना, केजरीवाल और आन्दोलन से जुड़े अन्य व्यक्तियों की नीयत और उनके चरित्र पर कीचड़ उछालने में कोइ कमी नहीं छोड़ी गयी. मनीष तिवारी और कपिल सिब्बल ने जहाँ एक ओर इन्हें चोर और भ्रष्टाचारी कहा वहीं लालू जैसे लोग भी ताल ठोंक कर अन्ना और केजरीवाल को चुनौती देते रहे. आन्दोलनकारियों पर लाठियां चलाईं गयीं, उन्हें जेलों में डाला गया. फिर एक वक्त ऐसा आया जब नेता बिरादरी खुलेआम गुंडई और नंगई पर उतर गयी. टीवी चैनलों पर सवाल पूछे जाने लगे कि ये चंद लोग जो जनलोकपाल की मांग कर रहे हैं, ये हैं कौन? किसने इन्हें अपना प्रतिनिधि माना है? देश बदलना है तो चुनाव लड़ें, जीतें और क़ानून बदलें. इसके बाद अनशन, आन्दोलन सबको सरकार द्वारा सीधे तौर पर नकार दिया गया. चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार अंग्रेजों से भी घटिया व्यवहार कर रही थी. जनता में हताशा घर करती जा रही थी. जो आम आदमी कल तक बदलाव के उम्मीद में अपना घर, दुकान, कॉलेज, ठेला सब बंद करके सड़क पर उत्तर आया था, एक बदलाव की उम्मीद मेें उसे फिर से लगने लगा कि कुछ नहीं हो सकता. और ऐसे समय में एक पागल उठा और कहने लगा कि ठीक है, हम राजनीति में उतरेंगे, चुनाव लड़ेंगे, जीत के दिखायेंगे, देश को बदल के दिखायेंगे. कुछ कर गुजरने का जुनून और आत्मविश्वास से लबरेज, चप्पल और 1980 स्टाइल की झोलदार पैंट पर लटकती कमीज पहने यह दीवाना था – अरविन्द केजरीवाल.
लोगों ने कहा है पगला गया है. मुझे भी लगा था कि क्या करने जा रहा है यह आदमी. इन घाघ नेताओं से इन्हीं के मोहल्ले में जाकर लड़ेगा? मेरे जैसे लाखों लोग तमाम आशंकाओं से घिरे हुए थे. लेकिन मन में भी अरविन्द केजरीवाल की नीयत और इरादों को लेकर शायद ही संदेह था. संदेह और डर था तो बस इस बात का कि जो उम्मीद जगी है वो गलत रास्ते पर जाकर कहीं ख़त्म ही न हो जाए. एक बार अगर ये उम्मीद मर गयी तो शायद दुबारा आम आदमी सड़क पर उतरने की हिम्मत पता नहीं कब जुटा पाए. अन्ना के साथ-साथ उनकी टीम के कई और सदस्यों ने केजरीवाल के साथ राजनीति की राह पर चलने से इनकार कर दिया. पर वह दीवाना अकेले ही चल पड़ा. मगर मजरूह के उस शेर की तरह कि “मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और काफ़िला बनता गया” इस दीवाने के पीछे भी एक काफ़िला बनता गया. एक ख्व़ाब लेकर चल रहे लोगों का काफ़िला जिसका नाम रखा इन्होने आम आदमी पार्टी.
अब इस काफ़िले पर हमलों के तौर-तरीके बदल गए थे. जो लोग पहले सवाल कर रहे थे कि देश बदलना है तो राजनीति में क्यों नहीं आते, वही अब यह इलज़ाम लगा रहे थे कि इन्हें तो शुरू से ही राजनीति में आना था. आन्दोलन तो बस एक बहाना था, एक जरिया था. पर ‘आप’ से जुड़े लोग इन तमाम हमलों की परवाह न करते हुए अपने काम में लगन से जुटे रहे. पहली बार एक राज्य की विधानसभा का चुनाव चंदे से जुटाए गए बीस करोड़ रुपयों से लड़ा जा रहा था. पहली बार रिक्शे वाले, ठेलेवाले, छात्र अपने कमाई से, अपने जेबखर्च से दस रुपया, बीस रुपया किसी पोलिटिकल पार्टी को चंदे में दे रहे थे. पहली बार कार्यकर्ता बिना किसी पैसे के लोगों तक पार्टी का प्रचार कर रहे थे, रात में जग-जाग कर पोस्टर लगा रहे थे. पहली बार चुनाव जाति, धर्म के नाम पर नहीं बदलाव, भ्रष्टाचार और विकास के मुद्दों पर लड़ा जा रहा था. जब दिल्ली में करोड़ों रूपये के पंडालों में बड़ी बड़ी रैलियां की जा रही थी, किसी पार्टी के नेता झुग्गियों और बदबूदार नालियों वाली गलियों में चप्पल घिसते हुए जनता से वोट मांग रहे थे. वोट बदलाव के लिए, वोट आम आदमी के लिए, वोट खुद के लिए. लेकिन लोग अब भी इन दीवानों की जीत के बारे में निश्चिन्त नहीं थे. हमले जारी थे, व्यंग्य वाण छूट रहे थे.
जिस दिन दिल्ली चुनाव के नतीजे आये बहुत लोगों के चेहरे सर्द हो गए थे, बहुतों के चेहरे पर अचंभा दिख रहा था तो बहुतों के चेहरे खुशी और उम्मीद से खिल गए थे. केजरीवाल की पार्टी 28 सीटों एक साथ दूसरी बड़ी पार्टी बनके उभरी थी और पंद्रह साल से सरकार चला रही कौंग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया था. खुद मुख्यमंत्री शीला दीक्षित केजरीवाल से बीस हजार से ज्यादा वोटों से चुनाव हार गयी थीं. जनता की लाठी जोरदार लगी थी चोरों पर. शायद जनता में अगर केजरीवाल की जीत के प्रति थोड़ी सी शंका न होती तो वो पूरे बहुमत से जीतते. केजरीवाल ने कहा कि वे विपक्ष में बैठेंगे. पर आलोचकों को चैन नहीं था. उन्होंने हल्ला मचाना शुरू किया कि ये जिम्मेदारी से भाग रहे हैं. कौंग्रेस समर्थन देने को तैयार थी. इसके दो कारण थे- एक तो उन्हें बीजेपी को हर हाल में रोकना था; और दूसरा उन्हें यह दिखाना था की देखो हम ईमानदार पार्टी को सहयोग दे रहे हैं. हालांकि कोई भी ‘आप’ समर्थक यह नहीं चाहता था कि केजरीवाल कौंग्रेस से किसी तरह का समझौता करें पर दूसरी ओर अधिकाँश जनता की यह भी इच्छा थी कि केजरीवाल सरकार बनाएं और जितना भी समय उनको मिलता है उसमें कुछ करके दिखाएं, अपने आपको साबित करके दिखाएँ. जिससे की जनता को पता चले कि वे सिर्फ बातें ही करना जानते हैं या उन्हें अमल में लाना भी. लोगों का यह मानना था कि अगर आम आदमी पार्टी दिल्ली में कुछ करके दिखा पायी तो पूरे देश में एक सन्देश जाएगा, एक उम्मीद जगेगी और शायद अआने वाले चुनावों में इसका फायदा पार्टी को मिले. केजरीवाल ने जनता की इच्छा का सम्मान करते हुए सरकार बनाने का फैसला किया. उन्होंने कहा कि हम किसी से समर्थन नहीं ले रहे. हमारी कुछ शर्ते हैं, कुछ मुद्दे हैं उनको हम विधानसभा में रखेंगे जिस किसी भी पार्टी के विधायक को लगे की ये मुद्दे सही हैं वे पक्ष में मतदान करें और जिन्हें लगता हो कि ये मुद्दे सही नहीं हैं वो विरोध करें. उसके बाद की जो स्थिति बनी थी उसपर मैंने फेसबुक पर लिखा था कि:
केजरीवाल: हम आम आदमी हैं और हमें लोकपाल चाहिए.
आलोचक: तुम हो कौन? हिम्मत है तो चुनाव में आओ. जीत के दिखाओ.
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केजरीवाल: हमें 28 सीटों पर जिताने के लिए जनता को धन्यवाद. हम एक बेहतर विपक्ष की भूमिका निभाएंगे.
आलोचक: ये देखो. झूठे वादे किये. अब जिम्मेदारी से भाग रहे हैं. झूठे, धोखेबाज.
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केजरीवाल: ठीक है. हम सरकार बनाएंगे और वादे पूरे करेंगे. जो हमारी शर्तों को मानते हैं वे समर्थन दें बाकी न दें.
आलोचक: ये देखो. कुर्सी के भूखे. ये शुरू से ही सत्ता में आना चाहते थे.
आज दिल्ली के रामलीला मैदान में अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. पूरा मैदान सफ़ेद टोपी पहने तिरंगा लहराते जनसैलाब से भरा था. ऐसा लगा रहा था जैसे लोगों के घर का कोई आदमी मुख्यमंत्री बन रहा हो. ऐसे नज़ारे राजनीति में कम देखने को मिलते हैं. वरना नेताओं को तो पैसे देकर ट्रकों में भरकर लोग लाने पड़ते हैं. कहाँ तो पार्टियों के अपने कार्यकर्ता भी पार्टी की टोपी नहीं पहनते, यहाँ हर आदमी सफ़ेद गांधी टोपी में घूम रहा था. यह सही मायनों में आम आदमी का शपथ ग्रहण था. आम आदमी ने सिहांसन छीना था. महात्मा गांधी ने कहा था – “First they ignore you, then they laugh at you, then they fight you, then you win.” यह बात कितनी सटीक बैठ रही है आज. केजरीवाल और उनकी पार्टी अपने वादों पर और हमारी अपेक्षाओं पर खरे उतरते हैं या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा पर फिलहाल मैं सिर्फ इसलिए खुश हूँ कि आम आदमी की उम्मीद को मरने से बचा लिया गया हैं. केजरीवाल अगर हार जाते तो आने वाले समय में कोई पढ़ा-लिखा युवा राजनीति के कीचड़ में घुसने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. इस जीत ने उसके ख़्वाबों को अभी ज़िंदा रखा है. उसके इरादों को मजबूत किया है. इन्हीं उम्मीदों, ख़्वाबों और इरादों के सहारे हमें आगे बढ़ना है. बदलाव के लिए, एक बेहतर भारत के लिए.
विवेक रस्तोगी says
वैसे अब दूसरे राजनैतिक दल “आप” को बहुत ही ज्यादा समझने लगी हैं, और इनकी सफ़लता से इतने बौखलाये हुए हैं कि कुछ भी बोल रहे हैं, एक बात और कि इन लोगों के पास नेताओं की कमी यकायक आ गई है, कोई भी बोलने को तैयार नहीं है और अगर कोई बड़ा नेता बोल भी रहा है तो वह भी अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पा रहा है।
ऐसा जरूर लग रहा है कि उन्हें भी यह अंदेशा हो गया है कि इस वर्ष ना सही परंतु जल्दी ही ये नई पार्टी सारे पुराने राजनैतिक दलों का सफ़ाया कर देगी ।
हमने भी पहली बार ही किसी राजनैतिक दल को चंदा माँगते हुए यूँ देखा, और हमारा मन भी पसीज उठा, कम से कम मेरे भारत के लिये इतना तो बनता ही है ।
Satish says
इतने सालों से अकेले मलाई काट रहे थे. कोई आ गया बीच में डंडा लेके तो अखरेगा ही न.
Ranjeet says
Goodone Satish…Kezrwal ne Lanka jeet li hai but Agnipariksha abhi baki hai…
Satish says
हाँ, अभी तो परीक्षा बाकी ही है. 🙂
अनूप शुक्ल says
अच्छा लिखा है।
Satish says
धन्यवाद. 🙂
बी एस पाबला says
सटीक अवलोकन,
सारगर्भित सामयिक लेख
Satish says
धन्यवाद, पाबला सर. 🙂
rashmi ravija says
देश के आम आदमी के अन्दर एक छटपटाहट थी ,कुछ करने की चाह थी, अपने देश की सूरत बदलने की इच्छा थी पर राह नहीं मिल रही थी. केजरीवाल ने वह राह दिखाई उन्हें,तो सब साथ हो लिए. पढ़े-लिखे, ईमानदार ,समर्पित लोग जब बिना किसी स्वार्थ के जुड़ेंगे तो सफलता मिलेगी ही .
आन्दोलन के कंसीव होने से लेकर उसके परिणाम तक की यात्रा ,सिलसिलेवार बहुत बढ़िया तरीके से लिखा है. AAP की सरकार ,जनता के लिए काम तो करेगी, इसमें कोई शक नहीं…बस उन्हें मौक़ा कितना मिलता है ,ये देखना है .पर उम्मीद का दिया जल चुका है…आज नहीं तो कल , रौशनी फैलेगी ही.
Satish says
शुक्रिया रश्मि दी.
Vijay Deshmukh says
Excellent analysis. Keep it up.
Satish says
Thank you, Vijay ji.
Swapna Manjusha says
वाह !
बहुत ही अच्छा लिखा है तुमने सतीश । तुम्हारे ब्लॉग तक मैं रश्मि की वजह से पहुँची हूँ, थैंक्स रश्मि !
Satish says
Thank you ma’am.. 🙂
Swapna Manjusha says
देखो न रश्मि, ई सतीश बचवा तुमको ‘दी’ बोलता है और हमको ‘मेम’ । का हम ‘मेम’ दीखते हैं ? 🙂
Satish says
सॉरी, मञ्जूषा दी. गलती माफ़ हो 😀
Swapna Manjusha says
माफ़ी नहीं बचवा, नए साल में मेरी तरफ से ढेर सारा प्यार आशीर्वाद मिले तुमको 🙂
Satish says
🙂
आपको भी नए साल की ढेर सारी शुभकामनाएं, दी.