न्यूज़पेपर का आधा काम आजकल फेसबुक कर देता है. उस दिन जब फेसबुक पर कई लोगों के अपडेट्स में गुवाहाटी के बारे कुछ आ रहा था. लगा कि कुछ हुआ होगा. छेड़छाड़ वगैरह की न्यूज कोई बड़ी बात कहाँ रह गयी है अपने देश में. पर फिर बार बार बात का जिक्र आते देख लगा कि मामला शायद उतना हल्का नहीं है जितना मैं समझ रहा हूँ. फिर यूटयूब पर गया और ‘गुवाहाटी इंसिडेंट’ सर्च किया तो जो वीडियो आया वो नीचे है. देखकर शॉक सा लगा. जैसे जैसे वीडियो आगे बढ़ा बदन में झुरझुरी सी दौड़ती चली गयी. कुछ खौफ की वजह से, कुछ गुस्से से, कुछ लाचारी से और कुछ शर्म से. मन अजीब सा हो गया. इतने गिरे तो न थे हम इंडियंस.
एक समाज के रूप में इतने गिरे, इतने बेशर्म तो न थे हम. ग्यारहवीं कक्षा की एक लड़की और बीस-तीस हट्टे-कट्टे नौजवान उसे नोच-खसोट रहे हैं. और उससे भी ज्यादा देख कर आनंद ले रहे हैं. ये वही एक्स जेनेरेशन है जो 2020 तक शाइनिंग इंडिया बनायेगी. खैर… इसके बाद तो फेसबुक से लेकर टीवी, अखबार सब पट से गए इस घटना से जुड़ी ख़बरों से. अब जो हो गया वों तो हो ही गया.. लोगों को व्यापार भी करना है.. कमाना-खाना भी है भाई. दिमाग में कई तरह की बातें आ रही थीं इस पूरे घटनाक्रम को लेकर. आखिर क्या चल रहा होगा उन नौजवानों के दिमाग में जब वों ऐसा कर रहे होंगे? क्या वाकई वे भारतीय संस्कृति की रक्षा को लेकर इतने जागरूक और चिंतित थे कि उनसे बार जाने वाली लड़की को सजा दिए बिना रहा नहीं गया? या कुछ और कारण था? क्या चल रहा था उस भीड़ के दिमाग में जो घेर कर एक लड़की की इज्जत का तमाशा बनते देख रहे थे. और क्या मानसिकता थी उस पत्रकार-कम-कैमरामैन की जो उस पूरे घटनाक्रम का वीडियोइतनी लगन से फिल्मा रहा था? क्या इसके पीछे सिर्फ उसका पत्रकारिता का धर्म काम कर रहा था? और इस घटना के बाद क्या? उस लड़की का क्या? उसके समाज का क्या? हमारी व्यवस्था का क्या? हमारा क्या? जेहन में कई सारे सवाल घुमड़ रहे थे.. घुमड़ रहे हैं….
नैतिकता और संस्कृति
ये तर्क देने वाले बहुत हैं, और मन में रखने वाले उससे भी ज्यादा, कि क्या इस घटना के लिए खुद वह लड़की या उसके परिवार वाले जिम्मेदार नहीं है? कई साहसी भाइयों ने खुल कर यह सवाल सोशल मीडिया और न्यूज साइट्स पर रखा कि क्या ‘आप’ अपनी बहन-बेटियों को टॉप-स्कर्ट जैसे कपड़ों में रात को बियर-बार भेजेंगे? और भेजेंगे तो लड़की के साथ हुई किसी दुर्घटना के लिए क्या आप खुद जिम्मेदार नहीं हैं?
एक बार सुनने में यह तर्क बड़ा बाजिव और प्रैक्टिकल लगता है. और इसका बाजिव आर प्रैक्टिकल लगना ही हमारे समाज, हमरी सोच के खोखलेपन और संकीर्णता को दिखाता है. आखिर कौन सी मानसिकता काम करती है इसके पीछे कि जब आपका लड़का गली-मोहल्ले के आवारा लौंडे-लपाड़ों से पिटकर आता है तो आप लड़ने के लिए लट्ठ लेकर निकल पड़ते हैं और जब लड़की आकर शिकायत करती है कि किसी गंदे मोहल्ले के लोफर ने उसपर कोई कमेन्ट पास किया तो आप उसे ही डांटते हैं कि ‘उधर करने क्या गयी थे?’ हमारी दोगली सोच की शुरूआत वहीं से होती है. हमारे घर से ही. आखिर शालीनता और नैतिकता की सारी उम्मीदें हम लड़कियों से ही क्यों रखते हैं हम? संस्कृति का सारा बोझ लड़कियों के कंधों पर ही क्यों? क्यों जब कोई लड़की मनचले लड़कों के अश्लील कमेन्ट को इग्नोर करके सर झुकाए, दुपट्टा संभालते चली जाती है तो उसके लिए इज्जत हमारे मन में बढ़ जाती है? और अगर वही लड़की छेड़ने वाले लड़कों को गंदी गालियाँ दे या चप्पल फेंक कर मारे तो आसपास के लोगों की भौहें तन जाती हैं.. आँखें फ़ैल जाती हैं.. उसके जाते ही दबी जुबान में बातें शुरू हो जाती हैं.. इसका उलटा क्यों नहीं होता?
इस बात को मैं मानता हूँ और मानने में मुझे कोई शर्म नहीं कि मेरी तरह के समाज से आये बहुत से लोगों की तरह मुझे भी यह यह पसंद नहीं होगा कि मेरे घर की कोई लड़की बियर बार या डिस्को जाए. अगर मुझे पता चले तो हो सकता है गुस्सा भी निकालूं लेकिन अपने घर की किसी भी लड़की को जज करने का, उसे नैतिकता सीखाने का, सजा देने का अधिकार मैं समाज के किसी भी (यहाँ जो सबसे गंदी गाली ध्यान में आये वो भर लीजिए) को नहीं दूंगा. कौन सी संस्कृति सड़क पर चलने वाले हर ऐरे-गैर मर्द को औरतों का गार्जियन बना देती है? हम हैं कौन किसी भी औरत की नैतिकता की सीमा और उसे तोड़ने की सजा तय करने वाले? दूसरी बात कि जिस संस्कृति की रक्षा करने का ढिंढोरा पीटकर आप किसी औरत की इज्जत को तार-तार कर रहे हैं क्या वही भारतीय संस्कृति नारी को देवी नहीं मानती. क्या वही संस्कृति नारी के सम्मान की रक्षा को हर पुरुष का कर्तव्य नहीं मानती?
तो कुल मिलाकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसी घटनाओं में शामिल लोगों के मन में नैतिकता और संस्कृति जैसी चीजें तो नहीं होती. क्या चीज होती है वो आप खुद सोच कर देखिये.
पत्रकारिता धर्म
ये शब्द बहुत सुनने में आता है ऐसी घटनाओं के साथ. कोई आत्महत्या कर रहा हो- उसको फिल्माना. फैशन शो में किसी के कपड़े फट जाएँ उसकी तस्वीर ले लेना, और अब छेड़छाड़ और रेप जैसी घटनाओं का लाइव वीडियो उतार लेना. मैंने पत्रकारिता पढ़ी नहीं कभी इसलिए पता नहीं कि यह धर्म क्या क्या कहता है लेकिन महाशय, पत्रकार आप बाद में बने होंगे उससे पहले तो आप इंसान ही थे. ये पत्रकारिता धर्म मानवता धर्म से भी ऊपर की चीज हो गया क्या? ये समझ आता है कि आप सनी देओल या अमिताभ बच्चन नहीं हैं जो अकेले बीस लोगों को पीटकर लड़की को छुड़ा लेते लेकिन आप थोड़ी देर के लिए वीडयो फिल्माना छोड़कर और लोगों को सूचना दे सकते थे, इकठ्ठा कर सकते थे. मुझे नहीं लगता कि उस लड़की की जगह आपके घर की कोई महिला होती तो आप पत्रकारिता धर्म इतने अच्छे से निभा पाते. चलिए आपने वीडियो फिल्माया, उससे अपराधियों की शक्ल सामने आयी, पकडे गए बहुत अच्छी बात है. लेकिन क्या वीडियो यूटयूब पर उपलोड करना जरूरी था? और अगर आप यूटयूब पर वीडियो डालने की अपनी इच्छा पर नियंत्रण नहीं भी रख पाए तो आजकल इतने सारे टूल्स हैं जिनसे आप पीड़ित लड़की के चेहरे को ब्लर कर सकते थे. इतना तो पत्रकारिता स्कूलों पे पढ़ाते होंगे. वैसे भी आपने वीडियो की इतनी अच्छी एडिटिंग की है, म्यूजिक वगैरह डाल के. इतना तो आप कर सकते थे. पर इतनी टेंशन कौन ले. और फिर टाइम भी कहाँ होगा.. कहीं आपसे पहले कहीं कोई और इस बारे में कुछ डाल देता तो फिर ‘एक्सक्लूसिव’ नहीं रहती न आपकी स्टोरी.. विश्वास कीजिये यह व्यंग्य नहीं है और अगर है भी तो लाचारी और गुस्से से उपजा हुआ..
आफ्टर इफेक्ट
हमारे यहाँ ऐसी घटनाओं के बाद प्रशासन और व्यवास्था सबसे पहला काम होता है- बयान देना. एक्शन तो बाद में होता रहेगा.. भारत बयान प्रधान देश है.. इसलिए पहले बयान. नेताजी का बयान – ‘घटना दुर्भाग्यपूर्ण है’.. जैसे इससे पहले यह किसी को पता ही नहीं था. अरे सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि ऐसे-ऐसे नेता हैं हमारे देश में. महिला आयोग की नेता सिल्क साड़ी में गयीं, पूरे काफिले के साथ.. और बड़ाई लूटने के चक्कर में बेचारी लड़की का नाम घोषित कर आयीं.. खैर इतनी लापरवाही और बेवकूफी तो हम वैसे भी नेताओं से एक्सपेक्ट करते हैं. एक और महिला नेता ने बयान दे दिया कि महिलाओं को भड़कीले कपड़े नहीं पहनने चाहिएं. यह बयान अक्सर दिया जाता है. जैसे सलवार-कमीज और साड़ी पहनने वालों के साथ छेड़छाड़ नहीं हो रही हो. हमारे देश में तो बुर्के में जाती महिला पर भी कमेन्ट पास कर दिए जाते हैं. कहते हैं न – सुंदरता (और गंदगी भी) देखने वाले की आँखों में होती हैं.
ये वह लोकतंत्र है जहां महिला प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन सकती है, ओलम्पिक मेडल ला सकती है, अंतरिक्ष में जा सकती है; लेकिन स्कर्ट और जींस नहीं पहन सकती. पहनने पर उसको छेड़ने का, उसका बलात्कार करने का लाइसेंस मिल जाता है हम पुरुषों को. क्या बेहतरीन ‘बराबर समाज’ बना रहे हैं हम!
एक बात जो मेरे दिमाग में हमेशा घूमती है ऐसी घटनाओं के बाद की लड़की और उसके परिवार की क्या मानसिक स्थिति होती होगी. जिसकी इज्जत चीथड़े-चीथड़े होकर सारे घरों के ड्राइंग रूम्स, कम्प्युटर टेबल्स और मोबाइल्स तक पहुच चुकी हो वह इंसान किस तरह से अपनी बाकी जिंदगी सर सीधा रखकर जीता होगा. क्या उसका आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और समाज पर उसका विश्वास चूर-चूर नहीं हो जाता होगा? क्या वह अपने आप को कभी सुरक्षित महसूस कर पाता होगा? क्या हम और आप एक समाज के रूप में ऐसी पीड़ित लड़कियों को पहले की तरह स्वीकार करते हैं? अपनाते हैं? अपराध करने वाले तो अपराध साबित होने के बाद अपराधी माने जायेंगे मगर जो उस अपराध का पीड़ित है वह क्यों उसी वक्त से एक गुनाहगार की तरह जीने को मजबूर हो जाता है. ऐसे कई सारे सवाल हैं जिनके बारे में हमें और हमारे समाज को सोचने की जरुरत है. आखिर हमें भी समाज में ऐसे भेड़ियों के साथ ही जीना है.
*कार्टून मंजूल जी की वेबसाईट से साभार
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