Tag: आधुनिक हिन्दी कविता

  • नागार्जुन का काव्य शिल्प – अंतिम भाग

    नागार्जुन का काव्य शिल्प – अंतिम भाग

     पहला, दूसरातीसराचौथा और पांचवां भाग भी पढ़ें ……

    नागार्जुन पर यह आरोप अक्सर लगाया जाता रहा है की अपनी कविताओं में वे छंद और शिल्प के प्रति उदासीन हैं।सबसे पहले हमें यह देखना चाहिए की यह उदासीनता भाषा और शिल्प की अज्ञानता के कारण है या जानबूझकर अपनाई गयी है। नागार्जुन हिन्दी के अलावा संस्कृत, पाली, प्राकृत, बँगला,मैथिली आदि भाषाओं के भी जानकार थे। उन्होंने संस्कृत में काव्यरचना भी की है और हिन्दी में छंदबद्ध कविताएँ भी लिखी हैं।इसलिए यह कहना ग़लत होगा कि उन्हें भाषा-शिल्प का ज्ञान नहींथा। बल्कि उन्होंने कभी अपने कों छंद और शिल्प में बंधने नहींदिया। वह कविता बतकही की भाषा अपनाते हैं। यह भाषा जहाँस्थानीय शब्दों से अपने कों रंगती है वहीं अन्य भाषाओं के शब्दों कोंसमाहित कर काव्य कों एक विविधता प्रदान करती है। नागार्जुनकी कविताओं में शिल्प बनावटी या गढा हुआ नहीं है बल्कि सहजऔर उदार है। उनके काव्य में कबीर के भाषाई अक्खडपन औरनिराला के व्यंग्य-वैविध्य का अनूठा संगम है।

    भाषा के स्तर पर यह नागार्जुन की विशेषता है कि उनकी कवितासीधे जन से जाकर जुड़ती है। नागार्जुन कविता लिखते समय श्रोताके रूप में अपने सामने किसी कला-पारखी अथवा विद्वान कों नहींरखते बल्कि आम ‘जन’ कों रखते हैं। शायद यही कारण है कि जहाँउनकी कविता एक ओर एक अल्पशिक्षित किसान की समझ मेंआ जाते है है वहीँ बड़े साहित्यिक विद्वान उसे समझने में कठिनाईका अनुभव करते हैं। क्योंकि उनकी कविता कों समझने के लिएपहले साहित्यिक और कलागत पूर्वाग्रहों के चश्मे कों उतारना पड़ताहै।

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    सन्दर्भ ग्रन्थ

    १. मार्क्सवाद और आधुनिक हिंदी कविता – जगदीश्वर चतुर्वेदी

    २. प्रगतिवादी हिंदी साहित्य — डॉ. कृष्ण लाल “हंस”

    ३. आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास – दच्चन सिंह

    4. नागार्जुन – कवि और कथाकार – सत्यनारायण

    5. सामाजिक चेतना के निर्भय कवि बाबा नागार्जुन – डा0कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी का आलेख

    6. डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक जी के ब्लॉग पर प्रकाशित बाबानागार्जुन से सम्बंधित उनके संस्मरण

    कुछ अन्य स्रोत भी हैं पर सबका उल्लेख करना संभव नहीं है। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ। पर उन सबके प्रति ह्रदय से आभारी हूँ।

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  • बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग ५

    बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग ५

    प्रस्तुत है “नागार्जुन का काव्य संसार” श्रृंखला की वह कड़ी जिसका नागार्जुन के प्रशंसकों को शायद सबसे ज्यादा इंतज़ार होगा- बाबा नागार्जुन की व्यंग्यप्रधान कविताओं की चर्चा। पोस्ट थोड़ी बड़ी ज़रूर है पर विश्वास कीजिए एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद आप अंत तक पढेंगे। तो आइये शुरू करें —

    ( पर उससे पहले शायद आप पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा भाग भी पढ़ना चाहें …… )

    व्यंग्य कविताएँ

    नागार्जुन की सबसे अधिक पकड़ व्यंग्य पर ही है। जितनी व्यंग्य रचनाएं नागार्जुन ने हिन्दी साहित्य को दी हैं उतनी शायद ही किसी अन्य रचनाकार ने दी हो। कोई भी ऐसा वर्ग ऐसा नहीं है जो नागार्जुन के व्यंग्य की मार से बच सका हो। चाहे वह भ्रष्ट नौकरशाही हो, स्वार्थी राजनेता, सूदखोर, मुनाफाखोर, छायावादी कवि, कामचोर भिखारी या फ़िर फैशन और विलासिता में डूबी युवतियां उनका पैना व्यंग्य हर किसी को नंगा करता है। नागार्जुन का व्यंग्य एकदम उघडा हुआ व्यंग्य है जो लक्ष्य को चीरता हुआ, छीलता हुआ निकल जाता है। वे लपेट कर कोई बात नहीं कहते। बिल्कुल बेबाक और बेलौस व्यंग्य ही नागार्जुन को अन्य व्यंग्यकारों से अलग करता है।
    नागार्जुन के व्यंग्य का सबसे प्रखर रूप उनकी राजनीतिक कविताओं में निखर कर आया है। गांधी जी कि मृत्यु के बाद राजनेताओं के बीच सत्ता की भूख और धनलोलुपता के कारण राजनीति का घोर पतन हुआ। गांधी के रामराज्य का जो हश्र हुआ उस पर व्यंग्य करते हुए नागार्जुन कहते हैं –

    रामराज्य में अबकी रावण नंगा होकर नाचा है
    सूरत शकल वही है भइया, बदला केवल ढांचा है
    लाज शर्म रह गई न बाकी, गांधीजी के चेलों में
    फूल नहीं लाठियाँ बरसती रामराज्य की जेलों में।

    ‘खिचडी विप्लव देखा हमने’ संकलन अपने दौर की राजनीतिक परिस्थितियों का, राजनीति के पतन का ज्वलंत दस्तावेज है। इसमें मोरारजी, जयप्रकाश नारायण, चौधरी चरण सिंह और संजय गांधी से लेकर इंदिरा गांधी तक पर व्यंग्यात्मक कविताएँ लिखी गई हैं। यहाँ एक बात जो गौर करने लायक है वो है नागार्जुन की निर्भीकता। उनमें सता के प्रति डर नाम की कोई चीज थी ही नहीं। इमरजेंसी के दौर में भी जिस तरह उन्होंने इंदिरा गांधी पर तीखी कविताएँ लिखीं वो एक सच्चा क्रांतिकारी कवि ही कर सकता है। इंदिरा गांधी के हिटलरी रूप की तुलना वे बाघिन से करते हैं और पकड़कर चिडियाघर में बंद कर देने का भी आह्वान करते हैं।

    पकड़ो, पकड़ो, अपना ही मुंह आप न नोचे!
    पगलाई है, जाने, अगले क्षण क्या सोचे!
    इस बाघिन को रखेंगे हम चिड़ियाघर में
    ऎसा जन्तु मिलेगा भी क्या त्रिभुवन भर में!

    इंदिरा गांधी द्वारा अपनी महत्वाकांक्षाओं के आगे अपने पिता के सुकर्मों पर पानी फेरे जाने को वे इस तरह व्यक्त करते हैं –

    इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
    सत्ता की मस्ती में, भूल गई बाप को?
    बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
    क्या हुआ आपको? क्या हुआ आपको?
    छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको
    काले चिकने माल का मस्का लगा आपको
    किसी ने टोका तो ठस्का लगा आपको
    अन्ट-शन्ट बक रही जनून में
    शासन का नशा घुला ख़ून में
    फूल से भी हल्का
    समझ लिया आपने हत्या के पाप को
    इन्दु जी, क्या हुआ आपको
    बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!

    वहीं दूसरी जगह वे कहते हैं –

    दया उमड़ी, गुल खिले शर-चाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूं आपके
    किए पूरे सभी सपने बाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूं आपके |

    मोरारजी देसाई के लिए ‘भाई भले मोरार जी’ कविता का यह अंश देखिये –

    हाय तुम्हारे बिना लगेगा सुना यह संसार जी

    गिरवी कौन रखेगा हमको सात समंदर पार जी

    वोटों की राजनीति पर व्यंग्य करते हुए टिकट पाने की घुड़दौड़ का दृश्य नागार्जुन कुछ यों प्रस्तुत करते हैं –

    श्वेत श्याम रतनार अँखियाँ निहार के
    सिंडीकेटी प्रभुओं की पगधूर झार के

    दिल्ली से लौटे हैं कल टिकट मार के
    खिले हैं दांत दाने ज्यों अनार के
    आए दिन बहार के।

    और वोट पाने की जुगत भी देखिये –

    बेच-बेचकर गांधीजी का नाम
    बटोरो वोट
    बैंक बैलेंस बढाओ
    राजघाट पर बापू की वेदी के आगे अश्रु बहाओ।

    नागार्जुन ने सिर्फ़ राजनीति को ही नहीं बल्कि उस नौकरशाही को भी आड़े हाथों लिया है जो ऑफिस में तो गांधी की फोटो टांगते हैं और भीतर से धूर्त हैं। रिश्वत और कदाचार में घिरी नौकरशाही को कुछ यों रगड़ते हैं बाबा नागार्जुन –

    दो हजार मन गेहूं आया दस गांवों के नाम
    राधे चक्कर लगा काटने सुबह से हो गई शाम
    सौदा पटा बड़ी मुश्किल से पिघले नेता राम
    पूजा पाकर साध गए चुप्पी हाकिम हुक्काम
    भारत सेवक जी को था अपनी सेवा से काम
    खुला चोर बाजार, बढ़ा चोकरचूनी का दाम
    भीतर झरा गयी ठठरी, बाहर झुलसी चाम
    भूखी जनता की खातिर आजादी हुई हराम।

    नेताओं के कारनामों से देश की जो स्थिति हो रही है उसका वर्णन कुछ इस प्रकार है –

    कुर्सी कुर्सी गद्दी गद्दी खेल रहे हैं
    घटक तंत्र का भ्रूणपात ही खेल रहे हैं
    जोड़-तोड़ के सौ-सौ पापड बेल रहे हैं
    भारत माता को खादी में ठेल रहे हैं।

    देश की इस दुर्दशा से नागार्जुन क्षुब्ध तो हैं पर साथ ही कहीं न कहीं उनके मन में आशा की एक किरण भी है कि क्रान्ति का जो बीज जन-मानस के दिलों में सुगबुगा रहा है वह एक दिन ऊपर ज़रूर आयेगा। और इन आतताइयों के शाषण को उखाड़ फेंकेगा।

    ऊपर-ऊपर मूक क्रांति, विचार क्रांति, संपूर्ण क्रांति
    कंचन क्रांति, मंचन क्रांति, वंचन क्रांति, किंचन क्रांति
    फल्गु सी प्रवाहित होगी, भीतर भीतर तरल भ्रान्ति।

     अगला भाग इस श्रृंखला का अन्तिम भाग होगा जिसमें बाबा नागार्जुन के काव्य शिल्प की चर्चा होगी और उन स्रोतों की सन्दर्भ सूची भी होगी जिनसे मैंने इस श्रृखला को तैयार करने में मदद ली थी।

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  • बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग ४

    बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग ४

    इस भाग को पढने से पहले इस श्रृंखला का पहला, दूसरा और तीसरा भाग पढ़ें। इस भाग में नागार्जुन की कविताओं में आर्थिक यथार्थ और राष्ट्रीयता की भावनाकी चर्चा होगी।

    नागार्जुन के काव्य में आर्थिक यथार्थ

    नागार्जुन स्वयं हमेशा गरीबी और बेकारी से त्रस्त रहे। इसलिए उनकी कविताओं में गरीबी, आर्थिक वैषम्य आदि को काफी अभिव्यक्ति मिली है। स्वार्थी पूंजीपति वर्ग और उसकी शुभचिंतक सरकार पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं –

    निम्नवर्ग की आंत काटकर/ नसें दूह कर मिडिल क्लास की/

    रखो ठीक बैलेंस, बल्कि कुछ बचत दिखाओ/ छोटे बड़े

    मगरमच्छों को अभय दान दो/ धन्वंतरियों के उन अगणित

    अमृत्घतों पर, देखो कोई नज़र न डाले।

    वे चाहते थे कि सबको रोजगार के अवसर मिलें, सबकी गरीबी दूर हो और उनके अनुसार इसका समाधान औद्योगीकरण से ही सम्भव था। श्रम की महिमा पर बल देते हुए वे कहते हैं –

    सर्वसहनशीला अन्नपूर्णा वसुंधरा। स्तुति नहीं

    श्रम कठोर मांगती है। च्च्च्ती आई है सदा से धरती

    कर्षण विकर्षण सिंचन परिसिंचन।

    नागार्जुन ‘जन-लक्ष्मी’ की कल्पना करते हैं जिस पर सबका हक़ बराबर हो।

    राष्ट्रीयता के भाव की कविताएँ

    तरह चंद लोग अपने निजी और राजनीतिक स्वार्थों के लिए देश में क्षेत्रवाद का जहर फैला रहे हैं ऐसे में नागार्जुन की यह कविता बड़ी प्रासंगिक मालूम होती है-

    स्थापित नहीं होगी क्या/ लाला लाजपत राय की प्रतिमा

    मद्रास में/ दिखाई नहीं पड़ेंगे लखनऊ में सत्यमूर्ति।

    सुभाष और जे एम सेनगुप्त क्या सीमित रहेंगे

    भवानीपुर और श्याम बाज़ार की दूकान तक। तिलक

    नहीं निकलेंगे पूजा से बाहर ?

    महान राष्ट्रीय नेताओं, कलाकारों और साहित्यकारों के प्रति लिखी गयी उनकी श्रद्धायुक्त कविताओं को देखकर भी उनके राष्ट्रप्रेम का पता चलता है। पर इसका पूरा प्रमाण ६५ जुर ७१ के पाकिस्तानी आक्रमणों के दौरान लिखी गयी उनकी कविताओं में मिल जाता है। ६२ में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के बाद अब तक कम्युनिस्ट रहे नागार्जुन का कम्युनिस्टों से मोहभंग होता है और वे माओ को जमकर गरियाते हैं। यहाँ उन्होंने यह दिखा दिया कि किसी भी व्यक्ति के लिए देशहित विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।

    आज तो मैं दुश्मन हूँ तुम्हारा

    पुत्र हूँ भारतमाता का

    और कुछ नहीं हिन्दुस्तानी हूँ महज

    प्राणों से भी प्यारे हैं मुझे अपने लोग

    प्राणों से भी प्यारी है मुझे अपनी भूमि।

    पाकिस्तानी सेना पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं –

    वे हिटलर के नाती-पोते

    बाहरी शक्ति जिसका संबल

    देखो पीटकर भागे कैसे

    वे पाकिस्तानी दानव दल।

    नागार्जुन उन क्रांतिकारियों को भी आवाज देते हैं जो शोषण के ख़िलाफ़ मुक्ति के अभियान में लगे हैं-

    मशीनों पर और श्रम पर, उपज के सब साधनों पर

    सर्वहारा स्वयं अपना करेगा अधिकार स्थापित

    दूहकर वह प्रांत जोंकों की मिटा देगा धरा की प्यास

    करेगा आरम्भ अपना स्वयं ही इतिहास।

    राष्ट्रीय हित के अलावा नागार्जुन ने अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के कल्याण के लिए भी कविताएँ लिखीं।

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  • बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग ३

    बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग ३

    आपने बाबा नागार्जुन श्रृंखला का पहला और दूसरा भाग पढा। दूसरे भाग में हमने उनकी रागबोध की कविताओं पर चर्चा की थी। इस भाग में उनकी यथार्थ परक कविताओं पर चर्चा होगी। इस भाग में हम सिर्फ़ बाबा की सामाजिक यथार्थ का वर्णन करती कविताओं को देखेंगे। अगले भाग में आर्थिक यथार्थ राष्ट्रप्रेम और फ़िर व्यंग्यात्मक कविताएँ।

    यथार्थपरक कविताएँ

    बाबा ने अपनी कविताओं का भाव-धरातल सदा सहज और प्रत्यक्ष यथार्थ रखा, वह यथार्थ जिससे समाज का आम आदमी रोज जूझता है। यह भाव-धरातल एक ऐसा धरातल है जो नाना प्रकार के काव्य-आंदोलनों से उपजते भाव-बोधों के अस्थिर धरातल की तुलना में स्थायी और अधिक महत्वपूर्ण है। नागार्जुन ने सही मायने में शोषित, प्रताडित, गरीब लोगों कों वाणी दी। किसान, मजदूर और निम्न-मध्यवर्ग का शोषण करने वाली ताकतों के वे हमेशा विरोधी रहे और व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए क्रांति का आह्वान करते रहे। विश्वम्भर मानव के शब्दों में कहें तो, “व्यक्तिगत दुःख पर न रूककर वे व्यापक दुःख पर प्रकाश डालते हैं और यही सच्चे कवि की पहचान है।“
    नागार्जुन की कविता न सिर्फ़ यथार्थ का निरूपण करती है बल्कि उन मानव शक्तियों की खोज का मार्ग भी दिखाती है जिसके द्वारा मुक्त और शोशंहीन समाज की स्थापना की जा सके।
    सामाजिक यथार्थ – नागार्जुन की विशेषता है कि उन्होंने अपने यथार्थवाद को निरंतर ऊँचे धरातल पर पहुँचाया है। उनकी कविताओं में सामाजिक संघर्ष मुख्य रूप से मुखरित हुआ है। जब व्यक्तिवादी कवि अपने ही घेरे में बंधे ख़ुद के सुख-दुःख का राग अलाप रहे थे तब नागार्जुन ने अपनी कविता कों सामाजिक यथार्थ की तरफ़ मोडा था। वे अपने समय के यथार्थ से गहरे जुड़े हुए थे। यथार्थ के सभी पहलुओं पर उनकी पैनी नज़र थी और उनके विचारों और कार्य में कहीं कोई द्वैतता नहीं थी। धीरे धीरे नागार्जुन मार्क्सवादी विचारधारा की और आकर्षित हुए और इसी आकर्षण के कारण उनकी चेतना विश्व-चेतना की और बढ़ी। उनकी कविताओं में रागबोध का स्थान धीरे धीरे यथार्थबोध ने ले लिया और वे अन्याय, शोषण, गरीबी, भुखमरी, बदहाली, अकाल अदि स्थितियों कों अपनी कविताओं में चित्रित करने लगे। ‘खुरदरे पैर’ में जहाँ वे एक रिक्शाचालक के यथार्थ का मार्मिक चित्रण करते हैं-
    फटी बिवाइयोंवाले खुरदरे पैर
    दे रहे थे गतिरबड़-विहीन ठूंठ पैडलों को
    चला रहे थेएक नहीं, दो नहीं,
    तीन-तीन चक्रकर रहे थे मात
    त्रिविक्रम वामन के पुराने पैरों को
    नाप रहे थे धरती का अनहद फासला
    घण्टों के हिसाब से ढोये जा रहे थे !
    वहीं ‘देखना ओ गंगा मैया’ में गंगा की धारा में यात्रियों द्वारा फेंके गए पैसे ढूंढते नंग-धड़ंग छोकरों की अनुभूतियों और इच्छाओं के सजीव दृश्य प्रस्तुत करते हैं-
    बीडी पीयेंगे…………..
    आम चूसेंगे…
    या कि मलेंगे देह मेंसाबुन की सुगन्धित टिकिया
    लगाएंगे सर में चमेली का तेल
    याकि हम उम्र छोकरी कों टिकली ला देंगे।
    यहाँ भारत के बीडी पीते भविष्य और निम्नवर्ग की अतृप्त इच्छाओं और अभावग्रस्त जिन्दगी का यथार्थ मौजूद है। चाहे वह ‘प्रेत का बयान’ में परिवार का पालन-पोषण करने में असमर्थ एक प्राइमरी मास्टर की व्यथा का वर्णन या ‘अकाल और उसके बाद’ फ़ैली भूखमरी का चित्रण; नागार्जुन ने हमेशा वर्ग-वैषम्य, अंतर्विरोधों और व्यंग्य के माध्यम से सामाजिक यथार्थ के चित्रण किया है. नागार्जुन कों ये महसूस हुआ कि आजादी के बाद भी देश की प्रगति के रुके रह जाने का मूल कारण धनी और सुविधाप्राप्त वर्ग है जो रूढिवादी और जनविरोधी है।यही वर्ग पूरे देश पर हावी होता जा रहा है। जमींदारों और पूंजीपतियों का उत्पादन और उत्पादन के साधनों पर अधिकार होता चला गया और गरीब और अधिक गरीब होता चला गया।
    खादी ने मलमल से सांठ-गांठ कर डाली है
    बिड़ला, टाटा और डालमियां की तीसों दिन दीवाली है
    जोर-जुल्म की आंधी चलती,
    बोल नहीं कुछ सकते हो,
    समझ नहीं पाता हूँ कि
    हुकूमत गोरी है या काली है।
    साहित्यकारों में आजादी के कुछ वर्ष पहले और कुछ वर्ष बाद तक एक सामाजिक दायित्वहीनता आ गई थी। नागार्जुन ने अपनी कविताओं के माध्यम से साहित्यकारों कों दायित्व बोध कराने की कोशिश की है।
    इतर साधारण जनों से अलहदा होकर रहो मत
    कलाधर या रचयिता होना नहीं पर्याप्त है
    पक्षधर की भुमिका धारण करो………… ।
    (बाबा नागार्जुन की आर्थिक यथार्थ से सम्बंधित कविताओं की समीक्षा के लिए अगले भाग पर जाएँ। )
  • बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग २

    बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग २

    पिछली पोस्ट में आपने  बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – पहला भाग पढा। अब प्रस्तुत है इस श्रृंखला का दूसरा भाग। इसमें हम नागार्जुन की रागबोध की कविताओं पर चर्चा करेंगे।नागार्जुन की कविताओं कों हम मुख्यतः चार श्रेणियों में रख सकते हैं। पहली, रागबोध की कविताएँ जिनमें प्रकृति-सौंदर्य और प्रेम कविताओं कों रखा जा सकता है। दूसरी, यथार्थपरक कविताएँ जिनमें सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक यथार्थ कों दर्शाती कविताएँ हैं। तीसरे, राष्ट्रीयता से युक्त कविताएँ और चौथे व्यंग्य प्रधान कविताएँ।

     रागबोध की कविताएँ

    यह सही है की नागार्जुन की कवितायेँ मुख्य रूप से तत्कालिन सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को लेकर हैं। लेकिन उन्होंने ऐसी कविताएँ भी कम नहीं लिखी हैं जिनमें निजी जिन्दगी के हर्ष-विषाद सघन संवेदनात्मक और रचनात्मक ऐंद्रिकता के साथ अभिव्यक्त हुए है। नागार्जुन की प्रेम और प्रकृति से जुड़ी कविताएँ एक ऐसा मानवीय संसार रचती हैं जो अद्वितीय है। प्रेम कविताओं में अगर सघन संवेदनात्मकता है तो प्रकृति सम्बन्धी कविताओं में रचनात्मक ऐंद्रिकता। प्रकृति-प्रणय की अनुभूतियों से सम्बद्ध कविताओं के अतिरिक्त नागार्जुन ने कुछ कवितायेँ ऐसी भी लिखी हैं जिनमें तरौनी गाँव, इमली का पेड़ और गाँव के पोखर पर तैरती मिट्टी की सोंधी महक है. उन आलोचकों के लिए ये कविताएँ चुनौती की तरह हैं जो यह आरोप लगाते रहे हैं कि प्रगतिशील कविता मानवीय संवेदनाओं की आत्यंतिकता से अछूती है और कलात्मकता से उसका सीधा रिश्ता नहीं है।

     

    प्राकृतिक सौन्दर्य की कविताएँ 

     

    घुम्मकड़ी नागार्जुन के जीवन की एक अविभाज्य विशेषता है। अपने यायावरी जीवन के कारण उन्होंने देश-देशांतर के अनुभव बटोरे और प्रकृति कों अनेक रंगों में देखा। प्राकृतिक सौंदर्य की उनकी सर्वाधिक प्रशंसित कविताओं में ‘बादल कों गिरते देखा है’ कविता है। बादलों पर लिखी इस कविता में उन्होंने मैदानी भागों से आकर हिमालय की गोद में बसी झीलों में क्रीडा कौतुक करते हंसों, निशाकाल में शैवालों की हरी दरी पर प्रणयरत चकवा-चकवी के दृश्यबंध तो प्रस्तुत किए ही साथ ही कहीं पगलाए कस्तूरी मृग कों कविता में ला खडा किया –

     

    निज के ही उन्मादक परिमल

    के पीछे धावित हो होकर

    अपने ऊपर चिढ़ते देखा है
    बादल कों घिरते देखा है।

    प्रकृति के प्रति नागार्जुन में विशेष आकर्षण है। प्रकृति प्रेम उनकी ताजगी की प्यास बुझाता है। उनका प्रकृति प्रेम कृत्रिम नहीं है बल्कि सहज और नैसर्गिक है।

    यह कपूर धूप

    शिशिर की यह सुनहरी, यह प्रकृति का उल्लास

    रोम रोम बुझा लेना ताजगी की प्यास।

    बसंत कों कवि ने विशेष ललक से देखा। इसी तरह ‘शरद पूर्णिमा’, ‘अब के इस मौसम में’, ‘झुक आए कजरारे मेघ’ आदि कविताओं में नागार्जुन का सहज प्रकृति चित्रण देखा जा सकता है। चाँद का यह चित्र देखिये –

    काली सप्तमी का चाँद

    पावस की नमी का चांद

    तिक्त स्मृतियों का विकृत विष वाष्प जैसे सूंघता है चाँद
    जागता था, विवश था अब धुंधला है चाँद

    नागार्जुन की कविताओं में सौंदर्यमूलक परिवेश एकदम सजीव और मनोरम बन पडा है। ग्रामीण सौंदर्य चित्रण में कवि ने नदी, तालाब, अमराई, खेत-खलिहान आदि के जो दृश्य-पट संजोये हैं वे अपनी मनोरम छवि से पाठक कों बार बार रसभीनी अनुभूतियों में ले जाते हैं। वर्षा ऋतु में उठती मिट्टी की सोंधी महक, कजरारे मेघों की घुमड़न, मोर-पपीहा की गूंजती स्वर लहरियों और रह-रह कर चमकती बिजली की आँख मिचौली में नागार्जुन ख़ुद कों प्रस्तुत करते से दिखाई पड़ते हैं।
    प्रकृति का वर्णन करते हुए कभी-कभी वे भावाकुल हो उठते हैं। कभी वे जन-जीवन में हरियाली भरने वाले पावस कों बारम्बार प्रणाम भेजने लगते हैं –

    लोचन अंजन, मानस रंजन,
    पावस तुम्हे प्रणाम

    ताप्ताप्त वसुधा, दुःख भंजन
    पावस तुम्हे प्रणाम

    ऋतुओं के प्रतिपालक रितुवर
    पावस तुम्हे प्रणाम

    अतुल अमित अंकुरित बीजधर
    पावस तुम्हे प्रणाम

     

    कवि नागार्जुन प्रकृति कों सहज रूप में देखते हैं। उन्होंने प्रकृति का सजीव और स्वाभाविक चित्रण किया है। नागार्जुन की ‘प्रकृति जनसाधारण के सुख-दुःख में अपनी भागीदारी निभाती है और यह तभी हो सकता है कवि का भी उसके साथ सहज और आत्मीय सम्बन्ध कायम हो; और यह आत्मीयता बाबा नागार्जुन में देखी जा सकती है।
    प्रणय भाव की कविताएँ

    नागार्जुन ने हमेशा घुम्मकड़ी जीवन जीया पर उनकी अपनी पत्नी के प्रति गहरी रागात्मकता थी। कभी कभी प्रेयसी का बिछोह कवि नागार्जुन कों व्याकुल कर देता है। ‘सिन्दूर तिलकित भाल’, वह तुम थी’, ‘तन गई रीढ़’ और ‘वह दन्तुरित मुस्कान’ जैसी कविताओं में उनका यह प्रेम, यह विछोह उभर कर सामने आया है।

    झुकी पीठ को मिला

    किसी हथेली का स्पर्श
    तन गई रीढ़

    महसूस हुई कन्धों को
    पीछे से,
    किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल साँसें
    तन गई रीढ़

    कौंधी कहीं चितवन
    रंग गए कहीं किसी के होठ
    निगाहों के ज़रिये जादू घुसा अन्दर
    तन गई रीढ़

    नागार्जुन का प्रणय वर्णन सामाजिकता, शालीनता और गरिमा से युक्त है। यह प्रेम स्वस्थ प्रेम है, यह प्रेरणादायी है, जिसमें मांसलता की गंध दूर-दूर तक नहीं है। यह प्रेम पूर्ण समर्पण का प्रतीक है। नागार्जुन की प्रेमानुभूति अपने गहनतम रूप में ‘यह तुम थीं’ कविता में व्यक्त हुई है जहाँ वह अपने जीवन के सौंदर्य में अपनी प्रियतमा की छवि निहारते हैं।

    कर गई चाक

    तिमिर का सीना
    जोत की फाँक
    यह तुम थीं

    सिकुड़ गई रग-रग
    झुलस गया अंग-अंग
    बनाकर ठूँठ छोड़ गया पतझर
    उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार
    अचानक उमगी डालों की सन्धि में
    छरहरी टहनी
    पोर-पोर में गसे थे टूसे

    यह तुम थीं

    सिंदुर तिलकित भाल में कवि अपने घर-परिवार से दूर पड़ा हुआ अपनी पत्नी का तिलकित भाल याद करता है। कवि ने पत्नी के लिए “सिंदूर तिलकित भाल” का बिम्ब चुनकर कलात्मक कल्पना का ही परिचय नहीं दिया है, बल्कि अपने प्रेम को भारत –खासकर उत्तर भारत- की सांस्कृतिक विशिष्टता के माध्यम से पारिभाषित भी किया है। सिंदूर विवाहित स्त्री के सुहाग का प्रतीक है। वे पत्नी के मस्तक पर सुहाग के चिह्न को ही प्रेम के प्रतीक के रूप में चुनते हैं. सिंदूर उनके लिए संस्कृति की एक रूढ़ि भर नहीं है, वह संबंधों की प्रगाढ़ता का प्रतीक-चिह्न भी है. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नागार्जुन के लिए प्रेम एक संस्कार है जो न सिर्फ़ मनुष्य की संवेदनाओं कों विस्तार देता है बल्कि उसकी सोच को भी मानवीयता की गरिमा प्रदान करता है।
    नौस्टैल्जिक कविताएँ

    नागार्जुन का अधिकाँश जीवन यायावरी और आन्दोलनों में बीता। ऐसे में उन्हें अपना छूटा हुआ गाँव-घर, गाँव के संगी साथी, अमराइयां, और उनमें बोलती कोयल की स्वर लहरी याद आती है। और उनका नौस्टैल्जिया कविताओं में उभर कर आता है।
    सिन्दूर तिलकित भाल वैसे तो प्रणय भाव की कविता है पर इस कविता के भीतर उभरी हुई ‘होमसिकनेस’ को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है।

    याद आते स्वजन जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आँख,

    याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम

    याद आतीं लीचियां, वे आम
    याद आते धान याद आते कमल, कुमुदनी और ताल मखान
    याद आते शस्य श्यामल जनपदों के रूप-गुन अनुसार ही
    रखे गए वे नाम।

    पत्नी की स्मृति के साथ जुड़ी हुई है तरउनी गाँव की, वहाँ के लोगों की, और वहाँ के वस्तुओं की स्मृतियाँ भी। उसे लगता है कि वहाँ के किसानों ने अपनी मेहनत से उपजाई हुई चीज़ों, मसलन अन्न-पानी और भाजी-साग, फूल-फल और कंद-मूल…आदि ने मुझे पाला-पोसा है। उनका मुझपर अपार ऋण है। मैं उनका ऋण चुका नहीं सकता। और विडम्बना यह है कि मैं आज उनसे दूर आ पड़ा हूँ। यहाँ सब चीज़ों के रहते हुए भी कवि आत्मीयता और अपनापन नहीं अनुभव करता है। वह कहता है कि यहाँ भी कोई काम रूकता नहीं, मैं असहाय नहीं हूँ और अगर मर जाऊँगा तो लोग चिता पर दो फूल भी डाल देंगे, लेकिन यहाँ प्रवासी ही माना जाऊँगा, यहाँ रहकर भी यहाँ का नहीं बन पाऊँगा। स्मृति में ही वह पत्नी से कहता है कि तुम्हें जब मेरी मृत्यु की सूचना मिलेगी तो तुम्हारे हृदय में वेदना की टीस उठेगी। तुम तस्वीर में मुझे देखोगी और मैं कुछ नहीं बोलूँगा। अपनी इस भावना को सूर्यास्त के बिम्ब के माध्यम से और भी मार्मिक बनाते हुए नागार्जुन कहते हैं कि शाम के आकाश के पश्चिम छोर के समान जब लालिमा की करूण गाथा सुनता हूँ, उस समय तुम्हारे सिंदूर लगे मस्तक की और भी तीव्रता से याद आती है।

     

    ‘बहुत दिनों के बाद’ कविता में कवि पकी फसलों को देखने में, धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान में, जी भर ताल मखाना खाने और गन्ना चूसने में बीते हुए जीवन को याद करता है। इसी तरह ‘सुबह सुबह’ में तलब के लगाए गए दो फेरे, गंवई अलाव के निकट बैठकर बतियाने का सुख लूटना और आंचलिक बोलियों का मिक्सचर कानों की कटोरियों में भरने की कोशिश लगातार डोर होते जा रहे जीवंत क्षणों में लौट जाने या फ़िर उन्हें मनभर जी लेने की ललक ही कही जायेगी।

     

    सुबह-सुबह
    तालाब के दो फेरे लगाए
    सुबह-सुबह

    गँवई अलाव के निकट
    घेरे में बैठने-बतियाने का सुख लूटा

    सुबह-सुबह
    आंचलिक बोलियों का मिक्स्चर
    कानों की इन कटोरियों में भरकर लौटा
    सुबह-सुबह

     

    यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि ग्रामीण जीवन, प्रकृति और प्रेम की कविताओं कों लिखते समय नागार्जुन का कवि व्यंग्यात्मक नहीं होता। यह भी उनकी ऊर्जा और उपलब्धि ही कही जायेगी कि वे एक ही स्थिति पर व्यंग्यात्मक और रागात्मक दोनों तरह की कविताएँ लिख सकते हैं।

    जैसा कि आप जानते हैं कि जिस काव्य के लिए नागार्जुन कों जाना जाता है वह है यथार्थ का चित्रण करता काव्य। आप इसका उपयोग एक टाइम मशीन के रूप में कर सकते हैं। अगले भाग में नागार्जुन की यथार्थपरक कविताओं पर चर्चा होगी।

    पहला भाग    दूसरा भाग      तीसरा भाग       चौथा भाग      पांचवां भाग      छठा और अंतिम भाग

     

  • बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग १

    बाबा नागार्जुन का काव्य संसार – भाग १

    बाबा नागार्जुन

    जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में बीए करने के दौरान हिन्दी कविता का एक ऑप्शनल कोर्स लिया था. उसमें एक पेपर प्रेजेंट करना था किसी आधुनिक कवि के ऊपर. तो मैंने इसके लिए बाबा नागार्जुन को चुना था और जो पेपर मैंने बनाया और प्रेजेंट किया था उसे यहाँ इस ब्लॉग पर डाल रहा हूँ. साहित्य में तो रूचि शुरू से रही थी पर साहित्य की थ्योरी वगैरह से इससे पहले कभी वास्ता नहीं पड़ा था. बड़ी मेहनत की थी इसको तैयार करने के लिए. लाइब्रेरी में कई धूल पडी किताबों कों झाड़ पोंछ कर पढा, कई वेबसाइट्स और ब्लोग्स की ख़ाक छानी, कविताकोष पर भी समय बिताया. और किसी तरह लिख-लिखा कर आलेख तैयार किया। हालांकि गुणवत्ता से मैं ख़ुद संतुष्ट नहीं हूँ पर फ़िर भी लगा कि क्यों न इसे ब्लॉग पर डाल दिया जाए। अगर यह किसी शोध कार्य में सहायक नहीं भी हो तो कम से कम लोग पढ़कर आनंद तो ले ही सकते हैं। पढकर टिप्पणी ज़रूर दें कि आलेख आपको कैसा लगा। चूंकि यह आलेख बहुत लंबा है, आप इसे पढ़ते हुए बोर न हों इसलिए इसे छह भागों में बांटकर यहाँ पोस्ट किया है.

    बाबा नागार्जुन – एक परिचय
    नागार्जुन हिन्दी कविता के प्रगतिवादी युग के प्रखरतम कवि के रूप में जाने जाते हैं। वे हिन्दी कविता धारा के उन प्रमुख स्तम्भों में हैं जिन्होंने कविता कों न सिर्फ रचा बल्कि उसको जिया भी। हिन्दी काव्य साहित्य में उनका प्रवेश एक ऐसे क्रन्तिकारी कवि के रूप में होता है जो सच्चे अर्थों में सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। नागार्जुन जीवन और साहित्य दोनों में पीड़ित जन के पक्षधर रहे हैं। उनकी कविताएँ ‘जन’से निकलकर आती हैं और ‘जन’ की भाषा में ‘जन’ तक पहुँचती हैं। वे कोरे लेखक ही नहीं थे। जन आंदोलनों में भाग लेकर जेल यात्राएं भी की थीं।
    नागार्जुन के व्यक्तित्व निर्माण में तत्कालीन राजनीतिक,धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों की मुख्य भूमिका रही है। और इसकी प्रतिक्रया भी उनके सम्पूर्ण साहित्य में देखी जा सकती है। नागार्जुन के हिन्दी साहित्य में पदार्पण का युग एक ऐसा युग था जिसमें जिसमें राजनीतिक उथल पुथल के साथ समाज अब भी पुरानी रुढियों में जकडा हुआ था। एक और अंग्रेजों का दमन निरंतर बढ़ रहा था तो दूसरी ओर समाज में व्याप्त बुराइयां जैसे बाल विवाह, परदा प्रथा,अशिक्षा, विधवा समस्या आदि के कारण स्त्रियों की दशा शोचनीय थी। धार्मिक रुढ़िग्रस्तता, अंधविश्वास, आदि भी बढ़ते जा रहे थे। स्वतन्त्रता के बाद भी स्थितियों में तनिक भी परिवर्तन नहीं आया था। बल्कि राजनीति और अधिक भ्रष्ट हो गई थी। ऐसे में नागार्जुन जैसा संवेदनशील साहित्यकार कैसे इन स्थितियों से अछूता रह सकता था। वे स्वयं एक गरीब, निम्न-मध्यम-वर्गीय परिवार में पैदा हुए थे और अपने चारों ओर गरीबी , अपमान, दैन्य, विषमता में तड़पते किसानों,मजदूरों कों देखा था। अतः अमन और शान्ति की कविता न लिखना उनकी विवशता है। वे लिखते भी है-
    कैसे लिखूं शान्ति की कविता,
    अमन-चैन कों कैसे कड़ियों में बांधूं,
    मैं दरिद्र हूँ पुष्ट-पुष्ट की यह दरिद्रता
    कटहल के छिलके जैसी खुरदरी
    जीभ से मेरा लहू चाटती आई
    मैं न अकेला………..
    मुझ जैसे तो लाख लाख हैं, कोटि कोटि हैं।
    हालांकि ऐसा नहीं है कि उन्होंने राग-बोध की कविताएँ नहीं लिखीं पर शोषण और अन्याय के प्रति विद्रोह और आम जन की पक्षधरिता उनके काव्य का मूल भाव है।
    उन्होंने इतनी तीखी कविताएँ लिखीं कि व्यंग्य कहीं कहीं अतितीक्ष्ण बनकर औचित्य की सीमा का उल्लंघन कर बैठता है। जब चारों तरफ़ सामाजिक विसंगतियां हों वर्ग-भेद, वर्ग-शोषण, वर्ग संघर्ष अपने चरम पर हों तो उनकी कविताएँ भी कैसे सभ्रांत संस्कारों से आच्छादित हो सकती हैं। इसलिए उनकी कविता की भूमि ढोस खुरदरी है जो उनकी ठेठ’आखिन देखी’ की उपज है और ऐसे में उनकी तीखी नज़र से उपजा एकदम तीखा व्यंग्य यदि औचित्य की सीमा का अतिक्रमण भी कर जाता है तो वह हमें अखरना नहीं चाहिए। क्योंकि नागार्जुन एक ऐसी शख्सियत हैं जो एकदम कुंठारहित बेबाक शब्दों में बिना किसी डर के अपनी बात रखने की हिम्मत रखते हैं।
    नागार्जुन का काव्य

    नागार्जुन की कविताओं कों हम मुख्यतः चार श्रेणियों में रख सकते हैं। पहली, रागबोध की कविताएँ जिनमें प्रकृति-सौंदर्य और प्रेम कविताओं कों रखा जा सकता है। दूसरी, यथार्थपरक कविताएँ जिनमें सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक यथार्थ कों दर्शाती कविताएँ हैं। तीसरे, राष्ट्रीयता से युक्त कविताएँ और चौथे व्यंग्य प्रधान कविताएँ।